Write a story on rain season in hindi.
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बाहर बारिश के बरसते चले जाने, कभी बढ़ने, कभी थमने की आवाजें थी। जुलाई का दिन। सुबह का वक्त। अभी-अभी प्रभात ने अपने लिए चाय बनाई। चाय को मेज पर रखकर विलायत खान के दरबारी कान्हड़ा के कैसेट को प्लेयर पर चढ़ाया और चाय पीते-पीते सुनने लगे। कभी यह उनका आत्मीय रिकार्ड रहा था। अब वह कैसेट ले आए थे। चाय पीना खत्म हुआ और उन्होंने कैसेट प्लेयर बंद कर दिया। मन अपनी आत्मीय संगीत रचना पर भी नहीं रुका। पिछले कुछ दिनों की तरह मन भटकने लगा। इन दिनों में, इन पिछले कुछ दिनों में ही ऐसा हुआ कि न कोई किताब उनको बाँध पा रही है और न ही हिंदुस्तानी क्लासिकल के उनके कैसेट्स।
पिछले पाँच-छह बरसों से उनका यह रुटीन-सा बन गया था कि वे सुबह कॉलेज जाने के पहले तक कभी छात्रों को पढ़ाने की जरूरत से तो कभी यों ही कोई न कोई किताब पढ़ लेते, एक-दो अखबारों के पन्ने पलटते। रेडियो पर आठ बजे की न्यूज बुलेटिन सुनते और इसके साथ-साथ हिंदुस्तानी क्लासिकल संगीत की किसी-किसी रचना को सुन ही लेते थे। कुछ ही दिन हुए हैं कि प्रोफेसर प्रभात का रुटीन गड़बड़ा-सा गया है। किसी किताब को पढ़ने की शुरुआत करते है और बीच में ही उसको अधूरा छोड़ देते हैं। निगाहें किताब के पन्नों पर होती है और मन कहीं और भटकता हुआ।
उनके कमरे में बारिश के दिनों का मटमैला उजाला है और मच्छरों को भगाने के लिए जलती हुई अगरबत्ती की गंध। छत पर पंखा धीरे-धीरे चल रहा है। उनकी अलमारी पर दांडी यात्रा पर निकले गांधीजी की अखबारी तस्वीर है और उसके पास पड़ोस की रैक पर उनकी पत्नी और बिटिया की एक तस्वीर, जिसमें माँ और बेटी स्कूल के लिए निकल रहे हैं। माँ पढ़ाने के लिए और बिटिया पढ़ने के लिए। तस्वीर पुरानी है। तब तानिया मैट्रिक में थी। उसी स्कूल में जहाँ पत्नी हिंदी पढ़ाती है।
उनका मन अपने अपार्टमेंट से बाहर निकलने को हुआ। वे स्कूटर की जगह पैदल ही कॉलेज जाने का मन बनाने लगे। उनको बारह बजे अपना पीरियड लेना था। अभी नौ ही बजे थे। वे किसी रेस्तराँ में ही नाश्ता करने की सोचने लगे। रेनकोट पहनने के बाद बारिश के जूते पहन ही रहे थे कि उनके फ्लेट के ऊपर से उतरती उनकी पड़ोसी की बच्ची नजर आई।
थैंक्स अंकल… नीचे तक जो जाना है।’
उसी बच्ची के साथ सीढ़ियों से उतरते हुए उन्होंने सोचा कि रबर भी कितनी सुंदर चीज है। बच्चों के लिए कितनी उपयोगी और तसल्ली देने वाली चीज है। काश, बडी उम्र की भूलों को सुधार ने के लिए रबर जैसी किसी जादुई चीज की खोज हुई होती। भूल शब्द का मन में आना था और प्रभात को सुबह से मन में उतरती चढ़ती अपनी उदासी का कुछ-कुछ सबब समझ में आने लगा। बारिश, बच्ची, भूल, रबर और सीढ़ियों पर पसरा मद्धिम-सा उजाला उनको अपने मन के रेगिस्तानी कोनों में ले जाने लगा। उनको उस स्वप्न का हल्का-सा आभास मिल गया जिनसे उनकी रात की नींद टूटी थी और तब से वे बेचैन बने रहे थे। पिछली कुछ रातों से यह सपना बीच-बीच में आता रहा है। प्रभात की नींद में दखल देता रहा है। सपने में पसरा हुआ संशय है जो उन्हें इन दिनों में परेशान करता रहा है।
स्वप्न में गोधूलि का वक्त होता है। उनके घर के दरवाजे और खिड़कियाँ बंद रहती हैं। वे अपने बचपन के मकान के पिछवाड़े से रसोई की जालीदार खिड़की के पास आते हैं। तभी उन्हें बीस बरस पहले की अपनी पत्नी का रोता हुआ चेहरा नजर आता है। वे धीरे-धीरे अपने करीब रखी हुई चिट्ठियों को आग में झोंक रही हैं, चिमटे से उनकों पूरा-पूरा जला रही हैं, धीरे-धीरे कराह रही हैं। वे वहीं बैठी हुई बिल्ली की देह को सहलाते रहते हैं। उनकी बरसों पहले गुजर चुकी माँ बिल्ली के लिए दूध का कटोरा लिए आती है। चीनी मिट्टी का कटोर टूट जाता है। दूध गिरता है, बिल्ली चिल्लाती है और उनकी युवा पत्नी फटी-फटी आँखों से प्रभात की तरफ देखती है। उनका सपना यहीं टूट जाता है और उनकी नींद भी। कभी इस सपने में चिट्ठियाँ जलने के बाद भी साबुत चिट्ठियों में बदल जाती हैं और कभी प्रभात बारिश में भीगते हुए खिड़की के पास खड़े रहते हैं। कभी-कभार पत्नी की चीख से अपने झूले में लेटी हुई उनकी नवजात बिटिया जाग जाती है, प्रभात बाहर खड़े हुए अपना रेनकोट उतार नहीं पाते हैं। दरवाजे पर दस्तक दे रहे होते हैं।
इंडियन कॉफी हाउस में सुबह की शुरुआत हो रही थी। बिलमोरिया पेवेलियन से लौटे हुए खिलाड़ी बैठे हुए थे। कभी प्रभात अपने शहर के कॉफी हाउस में रोज ही जाया करते थे। वह कॉफी हाउस शहर के मेडिकल कॉलेज के परिसर में था और वहाँ नाटकों के रिहर्सल के बाद वे अपने तीन-चार दोस्तों के साथ बैठा करते थे। धीरे-धीरे वह थिएटर ग्रुप बिखर गया था। नौकरियों और विवाहों से थिएटर से जुड़े लोगों को दूसरे शहरों में बसना पड़ा। उसी ग्रुप में वह लड़की भी थी जिसके साथ प्रभात अपना घर बसाना चाहते थे। ऐसा न हो सका। उस लड़की के विवाह के सात-आठ बरस बाद प्रभात ने अपने ही शहर की उस अध्यापिका से विवाह कर लिया जो उनके ही शहर में पढ़ाती थी। इन दिनों प्रभात अपने परिवार से दूर, एक दूसरी जगह के कॉलेज के प्रिंसिपल होकर रह रहें हैं। महीने में एकाध बार अपने घर चले जाते हैं। पर इधर जुलाई के आखिरी दिन चल रहे हैं और वे अपने घर नहीं गए हैं।
गर्मियों की छुट्टियों में प्रभात अपने परिवार के साथ शिमला गए थे। वे, उनकी पत्नी और बीस बरस की बिटिया पहले भी अलग-अलग शिमला जा चुके थे। इस बार तीनों साथ थे और एक जगह पर रुके थे। शिमला में उनकी छुट्टियों के मई के दिन अच्छी तरह बीत ही रहे थे कि एक शाम प्रभात ने अपनी पत्नी से जाना कि जब वह कॉलेज की छात्रा के रूप में वहाँ गई थी तब एक लड़के ने उनके लिए अपने प्रेम को व्यक्त किया था। उनके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा था और उसका मन रखने के लिए वह शिमला में उसका साथ देती रही थी। उससे बातचीत करती रही थी। घुल मिल गई थी। यह सब वे अपनी बिटिया को तब बताने लगी जब उन्होंने एक लड़के को अपनी बिटिया के आसपास चक्कर लगाते हुए देखा था।
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बाहर बारिश के बरसते चले जाने, कभी बढ़ने, कभी थमने की आवाजें थी। जुलाई का दिन। सुबह का वक्त। अभी-अभी प्रभात ने अपने लिए चाय बनाई। चाय को मेज पर रखकर विलायत खान के दरबारी कान्हड़ा के कैसेट को प्लेयर पर चढ़ाया और चाय पीते-पीते सुनने लगे। कभी यह उनका आत्मीय रिकार्ड रहा था। अब वह कैसेट ले आए थे। चाय पीना खत्म हुआ और उन्होंने कैसेट प्लेयर बंद कर दिया। मन अपनी आत्मीय संगीत रचना पर भी नहीं रुका। पिछले कुछ दिनों की तरह मन भटकने लगा। इन दिनों में, इन पिछले कुछ दिनों में ही ऐसा हुआ कि न कोई किताब उनको बाँध पा रही है और न ही हिंदुस्तानी क्लासिकल के उनके कैसेट्स।
पिछले पाँच-छह बरसों से उनका यह रुटीन-सा बन गया था कि वे सुबह कॉलेज जाने के पहले तक कभी छात्रों को पढ़ाने की जरूरत से तो कभी यों ही कोई न कोई किताब पढ़ लेते, एक-दो अखबारों के पन्ने पलटते। रेडियो पर आठ बजे की न्यूज बुलेटिन सुनते और इसके साथ-साथ हिंदुस्तानी क्लासिकल संगीत की किसी-किसी रचना को सुन ही लेते थे। कुछ ही दिन हुए हैं कि प्रोफेसर प्रभात का रुटीन गड़बड़ा-सा गया है। किसी किताब को पढ़ने की शुरुआत करते है और बीच में ही उसको अधूरा छोड़ देते हैं। निगाहें किताब के पन्नों पर होती है और मन कहीं और भटकता हुआ।
उनके कमरे में बारिश के दिनों का मटमैला उजाला है और मच्छरों को भगाने के लिए जलती हुई अगरबत्ती की गंध। छत पर पंखा धीरे-धीरे चल रहा है। उनकी अलमारी पर दांडी यात्रा पर निकले गांधीजी की अखबारी तस्वीर है और उसके पास पड़ोस की रैक पर उनकी पत्नी और बिटिया की एक तस्वीर, जिसमें माँ और बेटी स्कूल के लिए निकल रहे हैं। माँ पढ़ाने के लिए और बिटिया पढ़ने के लिए। तस्वीर पुरानी है। तब तानिया मैट्रिक में थी। उसी स्कूल में जहाँ पत्नी हिंदी पढ़ाती है।
उनका मन अपने अपार्टमेंट से बाहर निकलने को हुआ। वे स्कूटर की जगह पैदल ही कॉलेज जाने का मन बनाने लगे। उनको बारह बजे अपना पीरियड लेना था। अभी नौ ही बजे थे। वे किसी रेस्तराँ में ही नाश्ता करने की सोचने लगे। रेनकोट पहनने के बाद बारिश के जूते पहन ही रहे थे कि उनके फ्लेट के ऊपर से उतरती उनकी पड़ोसी की बच्ची नजर आई
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