Hindi, asked by jayashrinivas9357, 1 year ago

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Answered by lpskshatri
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भारतीय साहित्य शास्त्र में कला की गणना उप-विद्याओं की कोटि में की जाती है । इस विभाजन के अनुसार काव्य और कला को दो विभिन्न श्रेणियों में रखा गया है । काव्य को कला से महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है, किंतु वर्तमान युग के विचारक इस विभेद को स्वीकार नहीं करते हैं ।

आज कला की सीमा अत्यंत व्यापक मान ली गई है, जिसके अंतर्गत साहित्य, नृत्य, वाद्य, चित्र, मूर्ति आदि सबको समाविष्ट कर लिया गया है । काव्य के आलोचक दंडी ने, ‘नृत्यगीत प्रभुत्व-कला कामार्थ संश्रया:’ कहा है । उन्होंने कलाओं की संख्या चौसठ बताई है । शैवागमों में छत्तीस तत्त्व माने गए हैं ।

उनमें से एक तत्त्व कला भी है । क्षेमराज ने कला की परिभाषा करते हुए कहा है,  ”नव-नव स्वरूप प्रथोल्लेख-शालिनी संवित वस्तुओं में या प्रमाता में ‘स्व’ का, आत्मा को परिमित रूप में प्रकट करती है, इसी क्रम का नाम ‘कला’ है ।” क्षेममराज के इस कथन से यह ज्ञात होता है कि ‘स्व’ या ‘आत्मा’ को किसी-न-किसी वस्तु के माध्यम से व्यक्त करना ही कला है ।

इसी ‘स्व’ को व्यक्त करने के लिए कलाकार, चित्र, नृत्य, वाद्य, मूर्ति आदि का आश्रय ग्रहण करता है और अपनी आत्मा को रूपायित करने का प्रयत्न करता है । कला की एक स्थूल परिभाषा जान लेने पर यह प्रश्न उठता है कि भारतीय कला ने कई हजार वर्षों की जो दीर्घ यात्राएँ की हैं; भारतीय कलाकारों ने-जो महान् साधना की है, उसकी पृष्ठभूमि में वे कौन से आदर्श हैं या रहे हैं, जिनसे कला अनुप्राणित होती रही है और जिसे आधार मानकर भारतीय कला का विकास हुआ है ?

भारतीय साधना का इतिहास इस बात का साक्षी है कि इस देश के महात्माओं, दार्शनिकों, तत्त्ववेत्ताओं, कलाकारों और शिल्पियों ने अपने जीवनानुभव के बल पर जीवन और जगत् में निहित ‘सत्य’ के ही साक्षात् करने और उसे ही व्यक्त करने का प्रयत्न किया है तथा इस सत्य को उन्होंने लोक-कल्याण के लिए नियोजित किया है ।

इस प्रकार भारतीय कला के मूल में हमें दो प्रधान आदर्शों की स्थापना दृष्टिगोचर होती है-सत्य का साक्षात्कार और लोक का कल्याण । सत्य और लोक-संग्रह की भावना स्वयं में इतनी शक्तिशालिनी, प्रेर्णाप्रद और शाश्वतहै की जिन कलाकारों ने इनको अपनी काला का आदर्श स्वीकार किया, उनकी कला का आज भी इतिहास की लंबी अवधि के कुहासे को चीरकर अपनी प्रभावपूर्ण किरणों का प्रकाश संसार में विकीर्ण कर रही है ।

यह कहा गया है कि सत्य लोक-कल्याण की भावना ही भारतीय कला के आदर्श रहे हैं और उन्हीं को व्यक्त में उसने अपनी पूर्णता और सफलता का अनुभव किया है । अब यह देखना चाहिए भारतीय कला के विभिन्न रूपों में इस सत्य और लोक-कल्याण की भावना की न कहाँ तक हुई है तथा इन आदर्शो को ग्रहण करने का रहस्य क्या है ?

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Answered by prasadivnhs
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