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जीवन में शक्ति का आदान-प्रदान निरन्तर क्रम के रूप में चलता रहता है। एक से दूसरे का और दूसरे से तीसरे का निर्माण होता है। सृष्टि के इस क्रम को हम अपने ही शरीर में देख सकते हैं। एक कहावत है- “जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन।”
हम जो भोजन करते हैं उससे हमारा शरीर बनता है। इसको आधुनिक चिकित्सा शास्त्र भी मानता है। भारतीय ज्ञान इससे भी ऊपर है। भोजन के साथ भाव का भी महत्व है, क्योंकि इससे खाने वाले का मन तुष्ट होता है। भोजन किस भावना के साथ बनाया गया, किस भाव और दुलार के साथ खिलाया गया, किस वातावरण और मनोभाव से भोजन ग्रहण किया गया, आदि बातों का सीधा प्रभाव मन पर पड़ता है।
व्यक्ति मन की इच्छाएं पूरी करने के लिए कर्म करता है। इच्छा व्यक्ति की मर्जी से पैदा नहीं हो सकती। पूरा करना या न करना व्यक्ति की मर्जी है। जब इच्छा किसी अन्य शक्ति से पैदा होती है और वही हमारा जीवन चलाती है, तो स्वत: ही हम निमित्त बन जाते हैं। हमारा बुद्धि तंत्र निर्णय करता है, योजना करता है और उसी के अनुरूप शरीर को निर्देश देता है। शरीर कार्य में लग जाता है। इसका अर्थ यह निकला कि मन राजा है, बुद्धि और शरीर सेवक हैं। अत: मन, जो हमारी पहचान है, को शक्तिवान बनाना हमारा प्रथम धर्म है, ताकि हमारी पहचान भी वैसी ही बने।
इसका सरलतम और मुख्य मार्ग है- भोजन। भारतीय संस्कृति में हर खुशी की पहली अभिव्यक्ति भोजन ही है। जन्म, विवाह आदि से लेकर जीवन की हर खुशी पर खाना, दावत, पार्टी से आगे कोई अन्य अपेक्षा क्यों नहीं रखता? क्योंकि इसके साथ जीवन-शक्ति जुड़ी है। इससे मन पल्लवित होता है। इसमें वातावरण भी अपना योगदान करता है।