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उपनिषद कहते हैं ‘अमृत वै आप:’ अर्थात पानी अमृत है। वेदों ने पानी को ‘शिवतम: रस:’ कहा है सबसे अधिक कल्याणकारी रस है। ‘उश्तीरिव मातर:’ माँ के दूध जैसा पुष्टिदाता है। संध्या-उपासना में आचमन करते हुए हम सबसे पहले कहते हैं आे३म अमृतोपस्तरणमसि- हे भगवन्, यह सुखतादा जल प्राणियों का आसरा हो। जिन पांच तत्वों से प्राणियों के शरीर बने हैं, उनमें से पानी निकाल दें तो बाकी चारों तत्व भी मर जाएंगे। हवा में पानी न हो तो एक अंकुर तक न फूटे। अंतरिक्ष में पानी न हो, तो सूर्य के ताप से ही सब कुछ जल जाए। पानी रहने से ही धूप का भी महत्व है।जल स्वभाव से शीतल है, इसलिए जल का शांति व शीतलता से सम्बन्ध है। वरुण देव जल के अधिपति हैं तो इन्द्रदेव उसी जल को वर्षा के रूप में धरातल पर लाते हैं। वेदों में कुछ मंत्रों का भावार्थ है- जलों का हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। ये शरीर को निरोग करते हैं और मन यज्ञिय भावना को बढ़ाते हैं। कहा गया है कि हम जलों व औषधियों का हनन न करें। जल को स्वर्ग के देवता समान पूजनीय माना गया है। वनस्पतियां व जलों का सेवन मनुष्य के शरीर व मस्तिष्क दोनों को तेजस्वी बनाता है, उनके हृदयों को भी विशाल बनाता है। पानी ही इस सृष्टि का जन्मदाता है। जल से ही सब कुछ पैदा हुआ है। जन्म से मरण तक मनुष्य के जीवन के सभी कर्मकांडों, यज्ञों में जल का बहुत महत्व है। तीथरे पर जाकर निर्मल सरोवरों और बहती नदियों में स्नान का अपना ही महत्व है। जल दिव्य गुणयुक्त है, इसका ठीक प्रयोग शरीर व मन को स्वस्थ बनाता है, परिणामत: हमारे चेहरे पर एक मुस्कराहट होती है। जल के अभाव में मनुष्य के प्राण कंठ तक आ जाते हैं और दूसरे ऐसे सभी काम अधूरे रह जाते हैं। जल के अभाव में सृष्टि की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जल को सम्मान का पर्यायवाची भी माना जाता है। परमात्मा के अनन्त सामथ्र्य से आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी आदि तत्व उत्पन्न हुए हैं और उनमें ही पूवर्ोक्त कर्म के अनुसार शरीर आदि उत्पत्ति जीवन और प्रलय को प्राप्त होते हैं। मनुष्य के शरीर में 70 प्रतिशत रक्त पानी की मात्रा का विस्तार है। पशु-पक्षियों का जीवन जल का निर्धारित हैं। पेड़-पौधों की पानी की आवश्यकता मौसम आदि पर निर्भर है। यह पेड़-पौधे जितना पानी लेते हैं, वे वातावरण में रसने की क्रिया द्वारा छोड़ते भी है। जिससे जलवायु ऋतु में सुधार होता है। जीवन में पेड़ पौधों का बहुत ही महत्व है। जल ही जीवन है या कहिए जीवन ही जल है। जल को पीने व सिंचाई के लिए देना भी एक पुण्य का कार्य माना गया है। जल प्यासे के गले से उतर कर उसे मौत के मुंह से बचा लेता है, प्यासे के रोम-रोम में जीवन संचार हो उठता है I