Hindi, asked by pradeepsareen9166, 1 year ago

Write an Short Essay on a Train Accident in Hindi

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Answered by Anonymous
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प्रिय मित्र , भारत के नगरीय क्षेत्रों में लोकल ट्रेनों के चलने से स्थानीय निवासियों को काम-काज के स्थानों तक आने-जाने में बहुत मदद मिलती है । लोकल ट्रेन देश के प्राय: सभी भागों में स्थानीय यात्रियों की सुविधा के लिए चलाए जाते हैं ।
इनका किराया प्राय: कम होता है जिससे मध्यवर्गीय तथा निर्धन वर्ग के यात्रियों को राहत मिलती है । जिन क्षेत्रों से होकर रेलमार्ग गुजरता है वहाँ के लोग स्थानीय रेल सेवाओं का भरपूर लाभ उठाते हैं ।परंतु लोकल ट्रेन की यात्रा हमेशा सुखदायी नहीं होती है ।खासकर सुबह और शाम के समय इनमें अत्यधिक भीड़ होती है । यात्रियों से खचाखच भरी बोगियों में अच्छी तरह पैर रखने की जगह नहीं होती । विभिन्न कार्यालयों के कर्मचारी छात्र-छात्राएँ दूधवाले फेरीवाले सब्जीवाले आदि विभिन्न वर्गों के व्यक्ति अपने-अपने गंतव्य तक जाने के लिए सुबह के समय इन लोकल ट्रेनों की यात्रा करते हैं ।

इन दैनिक यात्रियों को लोकल ट्रेन में चढ़ने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है । ऐसी हालत में वृद्धों, महिलाओं और बच्चों के लिए इनमें यात्रा करना अत्यंत कठिन होता है । मुझे लोकल टेरन से यात्रा करने के कई अवसर प्राप्त हुए हैं । परंतु एक बार मुझे अत्यंत कष्टकारक अनुभव से गुजरना पड़ा ।ट्रेन पर किसी तरह चढ़ तो गया परंतु कई मिनटों तक दरवाजे से ही लटकी हुई दशा में रहना पड़ा । आगे खड़े यात्री सरकने के लिए तैयार ही नहीं थे । किसी तरह बोगी में दाखिल हो गया परंतु एक पैर ही बोगी पर टिका था । यात्रियों का दवाब सभी ओर से था ।कुछ यात्री मेरे पैर पर ही अपना पैर रखकर आगे बढ़ जाते थे । ऊपर से भयंकर गरमी और फव्वारे की तरह शरीर से छूटता पसीना । हमारी ट्रेन प्रत्येक पाँच-दस मिनट चलकर फिर से रुक जाती थी । छोटे से छोटे हाल एवं स्टेशन पर भी दस मिनट तक रुककर चलना इस टेरन की नियति बन गई थी ।ट्रेन जब भी रुकती बोगी के अंदर बाहरी हवा का प्रवेश कम हो जाता था । सभी यात्रियों का गरमी के कारण बुरा हाल था । टेरन की रफ्तार अत्यंत धीमी थी । किसी तरह मैं डब्बे के मध्य भाग तक पहुँच गया । मुझे यहाँ तक पहुँचाने में पीछे खड़े यात्रियों के लगातार दिए जाने वाले धक्के का बहुत बड़ा योगदान था ।
परंतु यहाँ भी राहत नहीं थी । मूँगफली, चाय, पान-बीड़ी-सिगरेट, मसालेदार चने, ककड़ी, खीरा आदि बेचने वाले अपनी आक्रामक शैली में जब आगे बढ़ते तो खड़े हुए यात्रियों को हर बार अपनी पोजीशन बदलनी पड़ती थी । इस भयंकर गरमी में खीरा, ककड़ी तथा शीतल पेय खरीदने वाले यात्रियों की संख्या अधिक थी ।इस यात्रा के दौरान मैंने कई बार खाली हुई सीट पर बैठने की चेष्टा की परंतु असफल ही रहा । मेरी तरह कई अन्य इस सीट के दावेदार थे । कई बार मुझे ‘लेडीज फर्स्ट’ के सिद्धांत के आधार पर खाली हुई सीट पर बैठने के स्वाभाविक अधिकार से वंचित होना पड़ा ।कुछ दूरी पर खड़ा एक वृद्ध बार-बार बगल की सीट पर बैठे यात्रियों की ओर करुण नेत्रों से देख रहा था । परंतु उसके नेत्रों की भाषा समझकर किसी ने भी उसे नहीं बिठाया । कुछ यात्री सीट हथियाने की चेष्टा में बीच-बीच में आपस में लड़ भी बैठते थे ।
मैंने ‘संतोषम् परमं सुखम्’ वाले नीति वाक्य को ध्यान में रखकर खड़े रहकर ही लोकल टेरन की यह यात्रा पूरी करने का मन ही मन संकल्प ले लिया । लगभग अस्सी किलोमीटर की दूरी चार घंटे में तय करने के बाद ट्रेन ने मुझे मेरे गंतव्य स्टेशन तक पहुँचा दिया । इक्कीसवीं सदी की इस तेज रफ्तार ट्रेन को धन्यवाद देकर मैं धक्का-मुक्की करते हुए ट्रेन से उतर गया ।
धन्यवाद ;) ☺☺☺
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