Write any five dohas of ramayana the great epic of hindu religion
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Dasharatha was the king of Kosala, an ancient kingdom that was located in present day Uttar Pradesh. Ayodhya was its capital. Dasharatha was loved by one and all. His subjects were happy and his kingdom was prosperous. Even though Dasharatha had everything that he desired, he was very sad at heart; he had no children.
During the same time, there lived a powerful Rakshasa king in the island of Ceylon, located just south of India. He was called Ravana. His tyranny knew no bounds, his subjects disturbed the prayers of holy men.
The childless Dasharatha was advised by his family priest Vashishtha to perform a fire sacrifice ceremony to seek the blessings of God for children. Vishnu, the preserver of the universe, decided to manifest himself as the eldest son of Dasharatha in order to kill Ravana. While performing the fire worship ceremony, a majestic figure rose from the sacrificial fire and handed to Dasharatha a bowl of rice pudding, saying, "God is pleased with you and has asked you to distribute this rice pudding (payasa) to your wives - they will soon bear your children."
—1—
राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार |
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर ||
अर्थ: तुलसीदासजी कहते हैं कि हे मनुष्य ,यदि तुम भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला चाहते हो तो मुखरूपी द्वार की जीभरुपी देहलीज़ पर राम-नामरूपी मणिदीप को रखो |
—2—
नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु |
जो सिमरत भयो भाँग ते तुलसी तुलसीदास ||
अर्थ: राम का नाम कल्पतरु (मनचाहा पदार्थ देनेवाला )और कल्याण का निवास (मुक्ति का घर ) है,जिसको स्मरण करने से भाँग सा (निकृष्ट) तुलसीदास भी तुलसी के समान पवित्र हो गया |
—3—
तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर |
सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि ||
अर्थ: गोस्वामीजी कहते हैं कि सुंदर वेष देखकर न केवल मूर्ख अपितु चतुर मनुष्य भी धोखा खा जाते हैं |सुंदर मोर को ही देख लो उसका वचन तो अमृत के समान है लेकिन आहार साँप का है |
—4—
सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु |
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु ||
अर्थ: शूरवीर तो युद्ध में शूरवीरता का कार्य करते हैं ,कहकर अपने को नहीं जनाते |शत्रु को युद्ध में उपस्थित पा कर कायर ही अपने प्रताप की डींग मारा करते हैं |
—5—
सहज सुहृद गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर मानि |
सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि ||
अर्थ: स्वाभाविक ही हित चाहने वाले गुरु और स्वामी की सीख को जो सिर चढ़ाकर नहीं मानता ,वह हृदय में खूब पछताता है और उसके हित की हानि अवश्य होती है |