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गोवा के डबलरोटी बनाने वालों की पेडर के रूप में पहचान । पुराने पुर्तगाली समय में गोवा के मनुष्य पावरोटी खाते थे। अब ये पावरोटी अदृश्य हो गई हैं। परन्तु उनके बनाने वाले अब भी वहाँ – पर हैं। भट्ठियाँ भी अब भी वहाँ पर हैं। पारम्परिक डबलरोटी बनाने वालों की बाँस द्वारा उत्पन्न आवाज अब भी सुनी जा सकती है। परिवार का कोई एक सदस्य अब भी यह व्यवसाय चलाता है। आज भी गोवा में इन बेकरों को पेडर के रूप में जाना जाता है।
बेकर का आना
बेकर लेखक का मित्र और मार्गदर्शक होता था। वह दिन में दो बार आया करता था। लेखक और दूसरों को उसके बाँस की आवाज जगा दिया करती थी। लेखक डबलरोटी रूपी बैंगल्ज के लिये उसके पास दौड़ा करता था। नौकरानियाँ पावरोटी खरीदा करती थीं और उन्हें घर में अन्दर ले जाती थीं।
पावरोटी का बाँटना
बेकर अपने बाँस के डण्डे से ‘झग ! झंग !’ की आवाज के साथ आता था। एक हाथ उसके सिर पर रखी टोकरी को सहारा देता था। दूसरा जमीन पर बाँस को फटकाता था। बाँस पर बेकर टोकरी को रखता था। लेखक और दूसरे उसकी टोकरी में झाँक कर देखते। वे गर्म चाय के साथ पावरोटी खाते थे। वे अपने दाँतों को ब्रुश नहीं करते थे।
डबलरोटी का महत्त्व
सभी अवसरों के लिये बेकर काफी महत्त्वशाली था। शादी के उपहार, बिना मीठी डबलरोटी के जिसे बोल कहते थे निरर्थक थे। सैंडविच, केक और बोलिन्हस डबलरोटी के साथ बनाये जाते थे।
बेकर का पहनावा
भूतकाल के बेकर या डबलरोटी बेचने वाले की एक खास पोशाक होती थी। इसे कबाई कहा जाता था। यह एक ही टुकड़े का लम्बा फ्रॉक होता था। यह घुटनों तक आता था। यह आजकल की आधी पैन्ट की तरह से होता है।
बेकर का एक खुश परिवार
बेकर प्रायः अपने पैसे महीने के अन्त में लेता था। पुराने दिनों में बेकिंग का व्यवसाय ना, वाला होता था। बेकर और उसके परिवार कभी भूख से नहीं मरते थे। उनके मोटे शरीर दिखाते थे कि वे खुश थे और निर्धन नहीं थे।
II.
कुर्ग-एक स्वर्गिक स्थान
कुर्ग तटीय शहर मंगलौर और मैसूर के बीच में पड़ता है। यह स्वर्ग जैसा बहुत सुन्दर स्थान है। यह अवश्य ही भगवान की राजधानी से आया होगा। बहादुर मनुष्य, सुन्दर महिलाएँ और जंगली जानवर (प्राणी) इसमें रहते हैं।
कुर्ग का मौसम व पर्यावरण
कुर्ग या कोडागू, कर्नाटक का सबसे छोटा जिला है। इसमें हमेशा हरे-भरे रहने वाले जंगल, मसाले और कॉफी के बाग हैं। इसमें सितम्बर और मार्च के बीच में काफी यात्री आते हैं। तब मौसम बहुत अच्छा होता है। हवा में कॉफी की खुशबू होती है।
कुर्ग के व्यक्ति-उनकी उत्पत्ति आदि
कुर्ग के व्यक्तियों की उत्पत्ति मिस्र या अरबी है। एक कहानी है कि अलक्जैण्डर की फौज का एक भाग यहाँ बस गया था। इसकी वापसी असम्भव हो गई थी। इन आदमियों ने स्थानीय व्यक्तियों में शादी की। यह संस्कृति उनकी बहादुरी के रीति-रिवाजों, शादी और धार्मिक कार्यक्रमों में दिखती है। अरब उत्पत्ति कोड्वा द्वारा पहने गये लम्बे और काले कोट में दिखती है। इसे कुपीया कहा जाता है। यह अरबी और कुडू द्वारा पहनी जाने वाली कुफीया की तरह से होती है।
कुर्ग और इसके व्यक्ति
कुर्गी घरों में आदर-सत्कार का रिवाज है। उन लोगों की काफी बहादुरी की गाथायें हैं। भारतीय सेना में कुर्ग रेजिमेन्ट सबसे अधिक सम्मानितों में से एक है। पहला आर्मी चीफ जनरल करियाप्पा कुर्गी था। आज भी भारत में कोड़वा ही अकेले व्यक्ति हैं जिन्हें बिना लाइसैन्स के हथियार रखने की अनुमति है।
इसका वन्य जीवन
कुर्ग के जंगलों और पहाड़ियों से कावेरी नदी अपना पानी प्राप्त करती है। इस पानी में ताजा पानी की सबसे बड़ी मछली महासीर पाई जाती है। कौडिल्ले, गिलहरियाँ और लंगूर इस पानी के समीप पाये जाते हैं। पक्षी, मधुमक्खियाँ और तितलियाँ यहाँ पर एक अच्छी संगत देती हैं। अपने महावतों द्वारा यहाँ नहलाए जाने का हाथी आनंद लेते हैं।
भूवृश्य
ब्रह्मगिरि की पहाड़ियाँ चढ़ने वाले को कुर्ग का समूचा दृश्य प्रदान करती हैं। रस्से के पुल द्वारा चौंसठ एकड़ में फैले हुए निसर्गधाम टापू तक जाया जा सकता है। भारत के तिब्बती बस्ती से बुद्ध धर्म के भिक्षुक यहाँ बाईलाकुपे में रहते हैं। कोई भी उन्हें लाल, गेरूए और पीले पहनावे में देख सकता है।