या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि नवौ निधि के सुख नंद को गाइ चराइ बिसा ।।
रसखान कबौं इन आँखिन सौं, ब्रज के बन बाग तडाग निहारौं।
कोटिक ए कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वा ।।
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या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि नवौ निधि के सुख नंद को गाइ चराइ बिसा ।।
रसखान कबौं इन आँखिन सौं, ब्रज के बन बाग तडाग निहारौं।
कोटिक ए कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वा ।।
यह पंक्तियाँ रसखान के सवैये से ली गई है:
रसखान जी पंक्तियों में कहते है ,
कवि रसखान का भगवान श्री कृष्ण एवं उनसे जुड़ी वस्तुओं के प्रति बड़ा गहरा लगाव देखने को मिलता है।
वह कृष्ण की लाठी और कंबल के लिए तीनों लोकों का राज-पाठ तक छोड़ने के लिए तैयार हैं। अगर उन्हें नन्द की गायों को चराने का मौका मिले, तो इसके लिए वो आठों सिद्धियों एवं नौ निधियों के सुख को भी त्याग सकते हैं। जब से कवि ने ब्रज के वनों, बगीचों, तालाबों इत्यादि को देखा है, वे इनसे दूर नहीं रह पा रहे हैं। जब से कवि ने करील की झाड़ियों और वन को देखा है, वो इनके ऊपर करोड़ों सोने के महल भी न्योछावर करने के लिए तैयार हैं।