'युद्ध से हानि' विषय पर अपने मित्र को एक पत्र लिखिए।
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युद्ध और लाभ! नहीं, युद्ध का तो नाम सुनते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। युद्ध मूल रूप से कोई अच्दी बात नहीं है। यों स्वभाव से भी मनुष्य शांतिप्रिय प्राणी है और युद्धों से बचा ही रहना चाहता है, फिर भी कई बार उसे युद्ध करने की विवशता ढोनी ही पड़ती है। हानि उठाकर भी तब उसका प्रयोजन राष्ट्रीय स्तर पर सुरक्षा और विजय प्राप्त करना हुआ करता है। ऐसा हो जाना लाभ ही तो है, पर कितना अच्छा हो कि युद्ध का अवसर ही देशों-राष्ट्रों के जीवन में न आए। क्या ऐसा हो पाना संभव है? संभव तभी हो सकता है, जब व्यक्ति उदार बनकर मात्र बातचीत द्वरा ही समस्यांए हल करने का संकल्प का ले। परंतु ऐसा हो कहां पाता है?
कुछ विद्वानों की यह उचित मान्यता है कि मूलत: बुरा और विनाशक होते हुए भी कई बार युद्ध लडऩा अनिवार्य एंव लाभप्रद हुआ करता है। जब कोई निहित स्वार्थी व्यक्ति, देश या राष्ट्र किसी अन्य पर अपनी बातें, धारणाएं या सत्ता थोपना चाहता हो तब युद्ध अपने बचाव, सुरक्षा और आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए आवश्यक तथा लाभप्रद हो जाया करता है। बड़े-से-बड़ा बलिदान देकर और कष्ट सहकर भी मातृभूमि की रक्षा मानव का परम कर्तव्य हुआ करता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए युद्ध को अनुचित नहीं कहा जा सकता। देशों-राष्ट्रों के जीवन में कई बार ऐसा समय भी आया करता है जब उसे चारों ओर से आलस्य, उन्माद, लापरवाही और बिखराव का-सा वातावरण घेर लिया करता है। तब युद्ध का बिगुल सहसा बजकर इन सब दूषणों को एकाएक दूर कर जातियों-राष्ट्रों को सप्राण बना दिया करता है। युद्ध नई ऊर्जा, नई उत्सुकता, साहस और उत्साह को भी जातियों के जीवन में जगाया करता है। उसे नए-नए साधन जुटाने, आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में अग्रसर किया करता है। जैसा कि सन 1965 में लड़े गए भारत-पाक युद्ध ने भारत को अनाज के मामले में आत्म-निर्भर होने की दिशा में अग्रसर किया। सन 1962 के चीनी आक्रमण ने देश को शस्त्रास्त्र एंव शक्ति के स्त्रोत जुटाने की प्रेरणा दी। इन युद्धों का ही परिणाम है कि आज हम एक सशक्त राष्ट्र के रूप में, आत्मनिर्भर एंव स्वावलंबी देश बनकर विश्व के मानचित्र पर उभर कर अपना एक अलग एंव महत्वपूर्ण स्थान रखने लगे हैं। न केवल तीसरी दुनिया की, बल्कि विश्व की प्रमुख शक्तियों में से एक महत्वपूर्ण शक्ति माने जाने लगे हैं।