Hindi, asked by ttshekhar72, 11 months ago

yadi me shikshak hota 80 Se100 shabdo me likho

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Answered by gandhisarika21
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Answer:

पुस्तकों एक सीमित रखने वाली इस बंधी-बंधाई शिक्षा-पद्धति के घेरे से उन्हें बाहर निकालने का यत्न करता। वास्तविक शिक्षा के लिए उन्हें बंद कि आज की हमारी परीक्षा-प्रणाली भी दोषपूर्ण है। जो विद्यार्थी की वास्तविक योज्यता की जांच नहीं कर पाती। इस कारण यदि मैं शिक्षक होता तो इस बेकार हो चुकी शिक्षा प्रणाली के साथ-साथ परीक्षा प्रणाली को बदलवाने की भी कोशिश करता।

अकसर देखा जाता है कि हमारे शिक्षक देहातों में नहीं जाना चाहते। जाते हैं, तो वहां के वातावरण को अपनाकर पढ़ा-लिखा नहीं पाते। देहातों से आाने वाले शिक्षक अपने ही गांव के विद्यालय में नियुक्ति करवा लेते हैं। ऐसा करवाने के बाद पढ़ाना-लिखाना छोडक़र वे अपने ही घरेलू कामों में लगे रहते हैं। मैं यदि शिक्षक होता तो कहीं भी जाकर मन लगाकर पढ़ाता। अपने गांव-शहर या गली-मुहल्ले के स्कूल में नियुक्त होकर भी पहला काम पढ़ाने का ही करता अपने घरेलु धंधों का एकदम नहीं। सच्चे मन से, उत्साह और प्रयत्नपर्वक पढ़ाकर ही कोई शिक्षक जीवन-समाज में आदत तो पा ही सकता है। आत्मसंतोष भी पा सकता है। शिक्षा देना वास्तव में एक पवित्र कर्म है। राष्ट्री-निर्माण का सच्चा आधार शिक्षक ही है। सो अच्छा शिक्षक हमेशा सामने राष्ट्री निर्माण और राष्ट्र हित का ेध्यान में रखेकर चला करता है। कम से कम मैं तो अवश्य ही लक्ष्य सामने रखकर चलता।

अक्सर ऐसा कहा सुना जाता है कि आज के शिक्षक स्वंय तो पढ़ते नहीं, जो पुस्तकें विद्यार्थियों को पढ़ानी होती हैं, वे भी पढक़र नहीं आया करते, फिर वे छात्रों को क्या खाक पढाएंगे? यदि मैं शिक्षक होता, तो अपने पर यह इलजाम कभी भी न लगने देता। जो कक्षांए पढ़ानी हैं, उनका पाठयक्रम तो पढ़ता ही, विषय से संबंध रखने वाली और पुस्तकें भी पढक़र आता, जिससे अपने छात्रों को अधिक से अधिक जानकारी देकर उसका ज्ञान बढ़ाने में सहायक होता।

यदि मैं शिक्षक होता, तो एक वाक्य में कहूँ तो हर प्रकार से शिक्षकत्व के गौरव और गरिमा को बनाए रखने का प्रयास करता। मैं विद्या, उसी शिक्षा, उसकी आवश्यकता और महत्त्व को पहले तो स्वयं भली प्रकार से जानने और हृदयंगम करने का प्रयास करता. फिर उस प्रयास के आलोक में ही अपने पास शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा से आने वाले विद्यार्थियों को सही और उचित शिक्षा प्रदान करता। ऐसा करते समय में यह मान कर चलता और वह व्यवहार करता कि जैसा कबीर कह गए हैं;

“गुरु कुम्हार सिष कुम्भ है, गढ़ि-गढि काढ़े खोट।

भीतर हाथ सहार दे, बहार बाहे चोट ।।”

अर्थात् जिस प्रकार एक कुम्हार कच्ची और गीली मिटी को मोड़-तोड़ और कुशल हाथों से एक साँचे में ढालकर घड़ा बनाया करता है उसी प्रकार मै भी अपनी सुकमार-मति से छात्रों का शिक्षा के द्वारा नव-निर्माण करता, उन्हें एक नये साँचे में ढालता। जैसे कुम्हार, मिट्टी से घड़े का ढाँचा बना कर उसे भीतर से एक हाथ का सहारा दे और बाहर से ठोंक कर उसमें पड़े गढ़े आदि को समतल बनाया करता है, उसी प्रकार मैं अपने छात्रों के भीतर यानि मन-मस्तिष्क में ज्ञान का सहारा देकर उनकी बाहरी बुराइयाँ भी दूर कर के हर प्रकार से सुडौल, जीवन का भरपूर आनन्द लेने के योग्य बना देता। लेकिन सखेद स्वीकार करना पड़ता है कि मैं शिक्षक नहीं हैं और जो शिक्षक हैं, वे अपने कर्तव्य का इस प्रकार गुरुता के साथ पालन करना नहीं चाहते।

यदि मैं शिक्षक होता, तो सब को समझाता कि आज जिसे शिक्षा-प्रणाली कहा जा रहा है, वास्तव में शिक्षा प्रणाली है ही नहीं। वह तो मात्र साक्षर बनाने वाली प्रणाली है। अतः यदि हम देश के बच्चों, किशोरों, युवकों को सचमुच शिक्षित बनाना और देखना चाहते हैं, तो इस को बदलकर इसके स्थान पर कोई ऐसी सोची-समझी और युग की आवश्यकताएँ पूरी कर सकने के साथ-साथ मानवता की आवश्यकताएँ भी पूरी करने वाली शिक्षा-प्रणाली अपनानी होगी, जो वास्तव में शिक्षित कर सके। शिक्षक होने पर मैं सबको यह भी बताने-समझाने की कोशिश करता कि सच्ची शिक्षा का अर्थ कुछ पढ़ना-लिखना सीख कर कुछ डिग्रियाँ प्राप्त कर लेना ही नहीं हुआ करता। सच्ची शिक्षा तो वह होती है कि जो मन-मस्तिष्क और आत्मा में ज्ञान का प्रकाश भर दे। इस नई ऊर्जा का संचार कर व्यक्ति को हर प्रकार से योग्य, समझदार और कार्य-निपुण बनाने के साथ-साथ मानवीय कर्त्तव्य परायणता से भी भर दे। जीवन में जीने की नई दष्टि और उत्साह दे।

यदि मैं शिक्षक होता, तो शिक्षा पाने के इच्छुकों को बताता कि शरीर को स्वस्थ-सुन्दर और सब प्रकार से सक्षम बनाना भी आवश्यक है। स्वस्थ शरीर, स्वस्थ मन-मस्तिष्क और आत्मा वाला व्यक्ति ही शिक्षा के वास्तविक उद्देश्यों को पूर्ण कर पाने में समर्थ हो पाया करता है। शिक्षक होने पर मैं पढ़ने वालों को हर प्रकार से एक पूर्ण, अन्तः बाह्य प्रत्येक स्तर पर सशक्त सम्पूर्ण व्यक्तित्व वाला मनुष्य बनाने का प्रयास करता, ट्यूशन्स, कुंजियों, गाइडों आदि का प्रचलन पूर्णतया प्रतिबन्धित करवा देता। किताबी शिक्षा पर बल न दे व्यावहारिक शिक्षा पर बल देता- वह भी बन्द कक्षा-भवनों में नहीं, बल्कि प्रकृति के खुले-उजले वातावरण में पर……..काश ! मैं शिक्षक होता- शिक्षक.

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