यह कदंब का पेड़, अगर माँ, होता यमुना की।
मैं भी उस पर बैठ, कन्हैया बनता धीरे धीर।।
ले देतीं यदि मुझे बाँसुरी, तुम दो पैसे वाली,
किसी तरह नीची हो जाती, यह कदंव की टाली।
तुम्हें नहीं कुछ कहता, पर मैं चापके ट्रापाके आना,
उस नीची डाली से, अम्मा, ऊँचे पर चढ़ जाता।
वहीं बैठ फिर बड़े मज़े से, मैं बाँसुरी बजाना,
अम्मा-अम्मा कह, बंसी के स्वर में तुम्हें बुलाना।
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