यज्ञ और प्राणायाम से होने वाले लाभों को स्वामी जी ने सत्यार्थ प्रकाश के किस समुल्लास में बताया है?
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महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती का प्रसिद्ध ग्रंथ “ सत्यार्थ प्रकाश “ हमें हमारी स्वस्थ परम्पराओं से परिचित कराने वाला, अंधविश्वासों से मुक्त कराने वाला, ज्ञान चक्षु खोलने वाला, हमारी सोई हुई चेतना को जगाने वाला और केवल हमारे धर्म की ही नहीं, अपितु विश्व के सभी प्रमुख धर्मों की जानकारी देने वाला, मानव धर्म का स्वरूप प्रस्तुत करने वाला वास्तविक अर्थों में एक अद्वितीय ग्रंथ है । आपकी धार्मिक मान्यताएं जो भी हों, मेरा अनुरोध है कि एक बार इसे अवश्य पढ़ें, और फिर “ अप्प दीपो भव “ अपना रास्ता स्वयं निर्धारित करें ।
इस ग्रंथ की रचना अब से लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व (1875 ई. में) हुई थी । इसने तत्कालीन समाज में वैचारिक क्रांति उत्पन्न कर दी जिससे (1) वेद और वैदिक साहित्य के महत्व को पहचानने, (2) अपने गौरवशाली अतीत को जानने, (3) संस्कारवान – आचारवान बनने, (4) धार्मिक अंधविश्वासों से मुक्त होने, (5) सामाजिक कुरीतियों को दूर करने, (6) विभिन्न संप्रदायों (जिन्हें सामान्य व्यक्ति धर्म कहता है) के प्रति जिज्ञासु बनकर उन्हें ठीक से जानने, उनकी अच्छी बातों को स्वीकार करने एवं अज्ञान / अंधविश्वास पर आधारित बातों को त्यागने, (7) विदेशियों की उपयोगी खोजों को सीखने, (8) स्वभाषा – स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने और (9) पराधीनता से मुक्त होने की प्रेरणा मिली । इनमें से केवल एक ही काम (विदेशी शासन से मुक्ति) पूरा हो सका है, शेष काम अभी भी अधूरे हैं क्योंकि उनकी जड़ें बहुत गहरी हैं। अतः उनके लिए अभी भी गंभीर प्रयास करने की आवश्यकता है । इस दृष्टि से यह ग्रंथ आज भी उपयोगी है, प्रासंगिक है क्योंकि इस कालजयी ग्रंथ में हमारी मानसिकता को अनुकूल दिशा में प्रेरित करने की संभावनाएं हैं ।
तत्कालीन भारत
पिछले लगभग एक हजार वर्षों से विदेशियों के चंगुल में फंसे इस देश में 19 वीं शताब्दी में कई महत्वपूर्ण घटनाएं घटीं। इसी शताब्दी में मैकाले का वह नीतिपत्र (1835 ई.) लागू हुआ जिसने शिक्षा का उद्देश्य और स्वरूप ही बदल दिया । विश्व भर में शिक्षा का उद्देश्य होता है व्यक्ति का शारीरिक – मानसिक – बौद्धिक – चारित्रिक आदि विकास करके उसे स्वावलंबी बनाना, पर मैकाले ने उद्देश्य बना दिया विदेशी शासन को चलाने वाले क्लर्क तैयार करना अर्थात नौकरी के लिए शिक्षा प्राप्त करना ; पूरे विश्व में शिक्षा अपनी भाषा में दी जाती है, पर हमारे यहाँ माध्यम हो गया एक विदेशी भाषा अंग्रेजी ; सर्वत्र शिक्षा की विषयवस्तु में प्रमुखता होती है ज्ञान-विज्ञान संबंधी अपनी उपलब्धियों की, पर हमारे यहाँ विषयवस्तु हो गई यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान, जिसके साथ अनिवार्य रूप से जोड़ दिया भारतीय ज्ञान-विज्ञान का उपहास। जिन कारणों से यह देश विदेशियों के जाल में फंसा, उनके लिए दूषित राजनीति के साथ-साथ हमारी विभिन्न सामाजिक, धार्मिक, और सांस्कृतिक कुरीतियाँ भी जिम्मेदार थीं। इन कुरीतियों से मुक्त करने के अनेक प्रयास इसी शताब्दी में राजा राममोहन रॉय, द्वारकानाथ टैगोर, देवेन्द्रनाथ टैगोर, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, केशवचन्द्र सेन, स्वामी दयानंद सरस्वती, डा. आत्माराम पांडुरंग, स्वामी विवेकानंद जैसे अनेक महापुरुषों ने किए जिसके फलस्वरूप भारतीय समाज में धार्मिक और सांस्कृतिक हलचल पैदा हुई । इन प्रयासों से एक ओर अनेक लोगों को सुधार की प्रेरणा मिली, तो दूसरी ओर किन्हीं लोगों के मन में लंबे समय से चली आ रही परम्पराओं से चिपटे रहने का मोह भी जागा (जो उक्त महापुरुषों के विचारों का प्रचार कम हो जाने के कारण अब बढ़ता ही जा रहा है) ।
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