यदि मैं सैनिक होता पर निबंध
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पता नहीं क्यों, जब मैं बहुत छोटा था और मैंने पहली बार एक वर्दीधारी सिपाही को देखा था, तो मुझे बहुत ही अच्छा लगा था। जाने-अनजाने तभी मेरे मन-मस्तिष्क में यह इच्छा पैदा हो गई थी कि मैं भी यह वर्दी धारण कर इसी की तरह रोब-दाब वाला दिखाई दूंगा। बनूँगा, तो सिपाही ही बनूँगा। फिर मैं जैसे-जैसे बड़ा होता गया, सिपाही और उसके कार्यों के प्रति मेरी जानकारी भी बढ़ती गई। कुछ और बड़ा होने पर जब मैं अपने घर से बाहर आनेजाने लगा, पढ़ाई करते हुए नौवीं-दसवीं कक्षा का छात्र बना; तब सिपाहियों का आम लोगों के साथ किया जाने वाला व्यवहार मुझे चौंका देता। मैंने पुस्तकों में पढ़ा-सुना तो यह था कि पुलिस के वर्दीधारी सिपाही जनता और उसके धन-माल की सुरक्षा के लिए होते हैं। लोगों को अन्याय-अत्याचार से बचाने के लिए इस महकमें का गठन और सिपाहियों को भर्ती कराया जाता है। लेकिन ये तो अपने वास्तविक कर्त्तव्य और उद्देश्य को भूल कर उलटे आम जनता पर अत्याचार करते हैं। लूट-खसोट में भागीदारी निभाते, रिश्वत लेते और भ्रष्टाचारी अराजक-असामाजिक तत्त्वों का साथ देकर उन्हें सज़ा दिलाने के स्थान पर उन का बचाव करते हैं। यह सब देख-सुन कर मन खट्टा हो कर भय-विस्मय से भर उठता है। सोचता हूँ कि जहाँ रक्षक ही भक्षक बन रहा है, इस देश का क्या होगा? तब साथ ही मेरे मन में एकाएक यह विचार भी अंगड़ाई लेकर जाग उठा करता है कि यदि मैं सिपाही होता, तो-?
सचमुच, यदि मैं सिपाही होता तो यह बनने के उद्देश्य की रक्षा करने के लिए सभी तरह के निश्चित-निर्धारित कर्त्तव्यों का पूरी तरह से पालन करता। वर्दी की हर तरह से प्रयत्न करके लाज बचाता और जन-सुरक्षा का जो सिपाही का प्रमुख कर्त्तव्य होता है, प्राण-पण की बाजी लगा कर भी उसका सही ढंग से निर्वाह करता। जिन के साथ किसी तरह का अन्याय हो रहा है, अत्याचार किया जा रहा है, उन सब की रक्षा के लिए, उन्हें न्याय दिलवाने के लिए सीना तान कर खड़ा हो जाता। अन्यायियों-अत्याचारियों के कदम कहीं और कभी भी एक क्षण के लिए भी टिकने न देता। आज पुलिस के सिपाहियों पर काहिली, दुर्घटना को देख कर भी अनदेखा करने, अराजक-असामाजिक तत्त्वों का बचाव करने, बात-बेबात में घूस लेने, कर्तव्य से कोताई करने जैसे जो तरह-तरह के दोषारोपण किए जाते हैं, निरन्तर प्रयत्न करके मैं इन सभी तरह के आरोपों और बुराइयों-दोषों का निराकरण कर देता।
आज व्यापक और व्यावहारिक जीवन-समाज में अन्य कई प्रकार की बुराइयाँ बढ़ती हुई दिखाई दे रही हैं। लूट-पाट, मार-पीट, काला बाज़ार और सामान्य-सी बात पर मार-पीट हो जाने, गोली-लाठी चल जाने, घातक छुरेबाजी और चोरी-चकारी का बाज़ार चारों तरफ गर्म है। लोग यह बात उचित ही मानते और कहा करते हैं कि यदि देश की पुलिस ईमानदार हो, तो यह सब हो ही नहीं सकता। अक्सर यह सही दोषारोपण भी किया जाता है कि इस तरह के सभी कुकृत्य पुलिस-सिपाहियों की मिलीभगत से, उनकी आँख के नीचे ही किये जाते हैं। यदि मैं सिपाही होता, तो अपनी कर्तव्यपरायणता से, अपनी लगन और परिश्रम से पुलिस पर लगने वाले इस तरह के सभी धब्बों को धोकर साफ़ करने का प्रयास करता । जीवन और समाज में पनप रहीं सभी तरह की बुराइयों के विरुद्ध जहाँ तक और जिस प्रकार भी सम्भव हो पाता, अपनी सामर्थ्य के अनुसार खुला संघर्ष छेड़ देता।
मैं तो जानता और समाचारपत्रों में अक्सर पढ़ता भी रहता हूँ कि आज देश में चारों ओर चोरी-छिपे नशाखोरी तो बढ़ ही गई है, नशीले पदार्थों का धंधा भी खूब ज़ोर-शोर से फलफूल रहा है। अवैध और जहरीली शराब खुले आम बिक कर, ज़हर साबित होकर बेचारे गरीबों की जान ले रही है। शराब-माफिया राजनीतिज्ञों और पुलिस वालों का संरक्षण प्राप्त करके ही यह जानलेवा ज़हर का धंधा निरन्तर चल रहा है। ज़हरीली शराब पीकर मरने वालों की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है। दूसरी ओर स्मैक, ब्राउन शूगर, हशीश जैसे प्राणघातक नशीले पदार्थों की बिक्री भी चल रही है और निस्संदेह प्रसिद्ध और राजनीतिज्ञों की हट पर संरक्षण पाकर चल रही है। यह जानकर ही खुले घूमने वाले मौत के इन व्यापारियों पर कोई हाथ नहीं डालता; लेकिन यदि मैं सिपाही होता, तो यह जानते हुए भी कि इतनी बड़ी पुलिस-व्यवस्था के सागर में, भ्रष्टाचार के उमड़ते सैलाब में सिपाही होने के कारण मेरी हस्ती एक नन्ही-सी बूँद के बराबर भी नहीं, इस तरह की सभी बुराइयों, छोटे-बड़े सभी तत्त्वों के विरुद्ध संघर्ष का बिगुल बजा देता और सिद्ध कर देता कि सभी को एक-जैसा समझना उचित कार्य नहीं है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि मेरा मन इस प्रकार की बुराइयों, उनके साथ जुड़े लोगों की बातें सुन कर भर उठता है। भभक कर दहक उठता है। यह देखकर दुःख से भर उठता है कि सब-कुछ जानते-समझते हुए भी समर्थ लोग मचल मार कर अपनी ही मौज-मस्ती में मग्न हैं। यह ठीक है कि मेरे अकेले के करने से कुछ विशेष हो नहीं पाता; लेकिन यदि मैं सिपाही होता, तो अपने कर्तव्यनिष्ठ संघर्ष से एक बार सभी की नींद तो अवश्य ही हराम कर देता – काश! मैं सिपाही होता।
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यदि मैं सैनिक होता पर निबंध
भूमिका- अपने विद्यार्थी काल में ही अधिकतर विद्यार्थी अपने जीवन में कुछ न कुछ बनने की कामना करने लगते हैं। कुछ लोग तो अपने माता-पिता की अभिलाषा के अनुकूल ही भविष्य में कोई भी मार्ग ग्रहण करने की सोचते हैं और कुछ लोग अपनी रुचि के अनुकूल ही कुछ बनने का लक्ष्य निर्धारित करते हैं। अधिकतर विद्यार्थी डॉक्टर, इन्जीनियर, औफेसर, वकील आदि बनने की ही सोचते हैं। इधर अब हमारे साथी सेना में जाने के लिए भी उत्साहित रहते हैं। लेकिन इसमें भी अधिकतर ‘पाइलेट आफिसर नेवी में आफिसर या लेफ्टीनेट बनने की अभिलाषा ही करते हैं। जिन के माता-पिता के पास अपना अच्छा व्यापार है वे केवल अच्छी शिक्षा लेकर अपने पिता के ही व्यापार में हाथ बंटाना चाहते हैं। आजकल के विद्यार्थी टेक्नीकल शिक्षा की ओर भी विशेष ध्यान देते हुए इसी ओर अपना मार्ग ढूंढने का प्रयास करते हैं। मैं यह सब जानता हूं। क्योंकि मैं इस समय दसवीं कक्षा में पढ़ रहा हूं और मेरे सहपाठी इस सम्बन्ध में बात करते हैं। अब जब मेरी बारी है तो मैं उन्हें और आपको बता देना चाहता हूँ कि मैं सैनिक बनना चाहता हूं और तब उन्नति करता हुआ अधिकारी बनना चाहता हूँ।
सैनिक बनने की अभिलाषा क्यों ? -मेरी एक सैनिक बनने की अभिलाषा क्यों है, यह आप जानना चाहेंगे। वास्तव में मेरी यह अभिलाषा के साथ एक छोटी सी घटना भी जुड़ी हुई है। घटना इस प्रकार है। यह पिछले ही महीने की बात है मैं स्कूल में छुट्टी होने के बाद बस के लिए बस स्टैण्ड पर खड़ा था। उसी समय दो सैनिक अपने सामान को लेकर वहीं पर आ गए और मेरे साथ ही खड़े हो गए। कुछ समय पश्चात् बस आई और मैं तथा वे लोग उसी बस में सवार हो गए। उन दिनों बसों को अपने निश्चित स्थान पर बजे अवश्य ही पहुंचना होता था। बस जब भर गई और सारे लोग अपने-अपने स्थान पर बैठ गए तो बस चल पड़ी। बस अपनी गति से चल रही थी कि अचानक मेरे पेट में दर्द होने लगा। दर्द धीरे-धीरे बढ़ने लगा तथा मैं इसे सह न सका तो मेरे मुख से एक चीख निकल पड़ी ओर में उन सैनिको पर लुढ़क गया। मैं धीरे-धीरे होश खोता जा रहा था। बसमैं बैठे लोग मेरी तरफ पहले तो देखने लगे लेकिन की धीरे-धीरे वे मेरे प्रति ध्यान दिए बिना अपनी ही बातों मैं खो गए। लेकिन उन सैनिको मैं एक ने मुझे सहारा दिया तथा दूसरे ने मेरा सर अपनी गोदमैं रख लिया। अचानक मुझे कै हो गए। बस मैं बैठे अन्य लोग मुझे गृणा की द्रिष्टि से देखने लगे। ड्राइवर तथा कंडक्टर ने मुझे भला-बुरा भी कहा लेकिन मैं विवश से एक ने जिनकी मैं गोद में मेरा सिर था, धीरे से मेरा सिर उठाया और सीट पर रखा। उन्होंने बैंग से अपना तौलिया निकाला तथा पहले मेरा मुंह साफ किया और उसके बाद अपने कपड़े। पानी के लिए उनके पास सैनिकों का ही जैसा कपड़े का थैला था। ड्राइवर से बस रुकवाकर उन्होंने भली प्रकार से मुझे मुंह साफ करवाया तथा फिर ठीक प्रकार से अपनी ही गोद में मेरा सिर रखा। कै होने के बाद मैं धीरे-धीरे ठीक होने लगा। उनकी असुविधा के लिए मैंने उनसे क्षमा माँगी। लेकिन उन्होंने मुझे समझाया कि इसमें क्षमा की कोई बात नहीं। जीवन में कभी भी किसी के साथ इस प्रकार की घटनाएं हो जाती हैं लेकिन हमें अपने कर्तव्य का तो ध्यान रखना ही चाहिए। हमें तो इस प्रकार की सेवा-भावना सिखाई जाती है और यह हमारा कर्तव्य बनता है। उनकी इस बात का मुझ पर गहरा असर पड़ गया है और आज भी मैं इस बात के प्रति कृत-संकल्प हूं कि मैं जीवन में सैनिक ही बनूँगा और अपने जीवन को इनके ही आदर्श के अनुरूप ढालूगा।
सैनिक बनकर क्या करूंगा ?- सैनिक बनना मेरे जीवन का लक्ष्य है। मैं जानता हूं कि मुझे भली प्रकार से ट्रेनिग दी जाएगी और इस अवसर पर हमें अनेक प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। लेकिन मैं इसके लिए तत्पर हूं। देश की संकट की घड़ी के लिए हमारा जीवन पवित्र त्याग करने के लिए सदैव तत्पर ही होगा। मैं अब अधिकतर भगतसिंह, चन्द्रशेखर की जीवनियां पढ़ता हूँ तथा देश के स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेने वाले सैनानियों के विषय में पढ़ता हूं। मैं जानता हूं कि इनके त्याग के परिणाम स्वरूप ही हमारा देश आज़ाद हुआ है। इधर चीन और पाकिस्तान के साथ हुए युद्धों में शहीद हुए सैनिकों का त्याग, याद कर मैं पुलकित हो जाता हूं। मुझे पुष्प’ की अभिलाषा’ नामक कविता याद है जिसमें पुष्प अन्त में कहता है
मुझे तोड़ लेना वनमाली,
उस पथ पर तुम देना फेंक।
मातृ भूमि पर शीश चढ़ाने,
जावें जिस पथ वीर अनेक ॥
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