यदि प्र
पहर दो पहर क्या,
अनेकों पहर तक
इसी में रही मैं
खड़ी देख अलसी
लिए शीश कलसी
मुझे खूब सुझी-
हिलाया-झुलाया
गिरी पर न कलसी!
इसी हार को पा,
हिलाई न सरसों,
झुलाई न सरसों,
हवा हूँ, हवा मैं,
बसंती हवा हूँ।
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nice poem but what to do with it
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