यदि पाठशाला ना होती हिंदी निबंध कल्पनात्मक
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Explanation:
अगर यदि पाठशाला नहीं होती तो हम सब अपने जीवन में कुछ नहीं बन पाते
Explanation:
प्राचीन युग में पाठशालाएँ मंदिर के समान पवित्र मानी जाती थीं विद्यादान एक आध्यात्मिक अनुष्ठान पाठशालाओं को 'आश्रम भी कहा जाता था, जहाँ गुरु या आचार्य निःस्वार्थ भाव से शिष्यों को संयम मर्यादापालन आदि के पाठ पढ़ाकर उनका चरित्र निर्माण करते थे तब शालाएँ ईयर और परम आनंद की प्रति माध्यम थी इसलिए यह कल्पना बड़ी विचित्र लगती है कि यदि पाठशालाएँ न होतीं तो क्या होता ?
पाठशालाएँ ज्ञान की गंगोत्री रही है, जहाँ से ज्ञान की निर्मल धाराएँ बहकर युगों युगों से मनुष्य जाति को आप्तावित करते आ रही हैं। इनके ज्ञान के प्रकाश में त्याग, सदाचार, उदारता, सत्यप्रियता जैसे मानवीय गुणों एवं नैतिक मूल्यों से संपन्न कौन बनाता? यदि पाठशालाएँ न होतीं तो कलाका कैसे होता? जान-विज्ञान की उन्नति कैसे होती? संस्कृति और सभ्यता का विकास कैसे होता ?
यदि पाठशालाएँ न होती तो आज समग्र विश्व महान विभूतियों की सेवाओं से वंचित रह जाता राम, कृष्ण, चाय, शिवाज, रवींद्रनाथ ठाकुर, महात्मा गांधी, स्वामी दयानंद स्वामी विवेकानंद, डॉ. होमी भाभा, डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम आदि की प्रतिभा को इन पाठशालाओं ने हो तराशा और निखारा है।
यदि पाठशालाएँ न होतीं तो विद्यार्थियों को बस्ते का बोझ न ढोना पड़ता। शिक्षकों को पाठ्यक्रम पूर्ण कराने की चिंता न होती हमारे समाज में व्यावसायिक संस्कृति का बोलबाला न होता। आज पैसे देकर विद्या खरीदने की क्रय-विक्रय पद्धति ने इस पुनीत क्षेत्र को दूषित कर दिया है। यदि पाठशालाएँ न होतीं तो विद्या मंदिर जैसे पवित्र क्षेत्र को प्रष्टाचार का सामना न करन
पड़ता। का मानव विकसित और सभ्य न होता वह आज भी घुमक्कड़ प्रवृत्ति का होता और यायावर की सी जिंदगी जीने को बाध्य होता
यदि पाठशालाएँ न होतीं तो न गुरु होते. न शिष्य होते और न ही गुरु-शिष्य का अनोखा रिश्ता होता है विष्णु है, गुरु ही महेश हैं और गुरु ही साक्षात् परब्रहम हैं, इस रहस्य को दुनिया कभी नहीं जान पाती। यदि पाठशालाएँ होती गुरु के बिना शिष्य का मार्गदर्शन कौन करता? शिष्यों में कौन प्रतिभाशाली है और कौन मंद बुद्धि, इसका निर्णय कौन करता यदि पाठशालाएँ न होतीं, तो विद्यार्थियों को अंतर्निहित शक्तियाँ जागृत कैसे होतीं तथा उन्हें दया, करुणा, क्षमा, त्याग, सदाचार, उदारता, सत्यप्रियता जैसे मानवीय गुणों एवं नैतिक मूल्यों से संपन्न कौन बनाता? यदि पाठशालाएँ न होतीं तो कलाका कैसे होता? जान-विज्ञान की उन्नति कैसे होती? संस्कृति और सभ्यता का विकास कैसे होता ?
यदि पाठशालाएँ न होती तो आज समग्र विश्व महान विभूतियों की सेवाओं से वंचित रह जाता राम, कृष्ण, चाय, शिवाज, रवींद्रनाथ ठाकुर, महात्मा गांधी, स्वामी दयानंद स्वामी विवेकानंद, डॉ. होमी भाभा, डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम आदि की प्रतिभा को इन पाठशालाओं ने हो तराशा और निखारा है।
यदि पाठशालाएँ न होतीं तो विद्यार्थियों को बस्ते का बोझ न ढोना पड़ता। शिक्षकों को पाठ्यक्रम पूर्ण कराने की चिंता न होती हमारे समाज में व्यावसायिक संस्कृति का बोलबाला न होता। आज पैसे देकर विद्या खरीदने की क्रय-विक्रय पद्धति ने इस पुनीत क्षेत्र को दूषित कर दिया है। यदि पाठशालाएँ न होतीं तो विद्या मंदिर जैसे पवित्र क्षेत्र को प्रष्टाचार का सामना न करना पड़ता।