यदि परिक्षाए ना होती essay in hind
plz send long essay
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परीक्षाएं स्कूल-व्यवस्था की खोज का परिणाम हैं। स्वदेशी स्कूलों को मिटा कर जब मैकाले मॉडल की शिक्षा लागू की गई, तो परीक्षा भी स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों और संस्थानों में भर्ती हो गई। परीक्षा शुरू होने से आज तक परीक्षाएं विवाद में रहीं, कभी पास-फेल की नीति को लेकर, कभी दबाव या तनाव के मनोविज्ञान को लेकर, कभी अंक-श्रेणी प्रणाली को लेकर, कभी साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक परीक्षण और त्रैमासिक, अर्द्धवार्षिक, वार्षिक प्रारूप को लेकर, तो कभी परीक्षा को योग्यता अर्जित करने, न करने के मापदंड को लेकर। गुणवत्ता के नाम पर कभी एमएलएल यानी न्यूनतम अधिगम स्तर को लेकर, यानी एक इकाई में जो निर्धारित है, उसे निश्चित अवधि में सौ प्रतिशत सीखने की दक्षता हासिल कर लेना।
परीक्षा में अक्सर छात्र-छात्राएं फेल-पास होते हैं। सबसे बड़ा सच तो यह है कि परीक्षा में खुद परीक्षा फेल हो जाती है। परीक्षा में छात्रों के अलावा अन्य कारकों पर ध्यान ही नहीं दिया जाता। तात्पर्य यह कि परीक्षा में केवल छात्र-छात्राएं फेल नहीं होते, उनके साथ पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तक, शिक्षा-प्रणाली, शिक्षा-प्रशिक्षण, शिक्षा-व्यवस्था और अभिभावक की चेतना भी फेल होती है। अक्सर छात्रों के फेल-पास का तो मूल्यांकन होता है, मगर उक्त कारकों का या तो मूल्यांकन होता नहीं, या होता भी हो तो उसे प्रकट नहीं किया जाता।
परीक्षा कक्षावार प्रोन्नति की पद्धति है। वह श्रेष्ठ, कम श्रेष्ठ, अश्रेष्ठ में विभाजन करती है। गांव-शहर, सरकारी-निजी, उच्च कॉरपोरेट घराने और शिशु मंदिर, गरीबों की बस्तियों के उपेक्षित स्कूल, मदरसे, विशेष बच्चों के स्कूल, अल्पसंख्यक स्कूल तो स्कूलों की वर्तमान परिभाषा में शामिल हैं, लेकिन कोचिंग कक्षाएं स्कूल न होकर पास कराने की गारंटी देती दुकानें हैं। परीक्षा प्रतियोगिता पैदा करती है और प्रतियोगिता तनाव पैदा करती है। एक-दो अंकों, विषयों में कम-ज्यादा नंबर या श्रेणियों या पास-फेल के कारण जब बच्चे आत्महत्या करते या अवैधानिक तरीकों का इस्तेमाल करते हैं, या परीक्षा बोर्ड तरह-तरह के घोटाले और भ्रष्टाचार करते हैं, तो लगता है, परीक्षाएं तो शिक्षा के साथ, बच्चों के साथ, समाज के साथ एक प्रकार का धोखा है।
जिस प्रमाण-पत्रीकरण को लेकर परीक्षा की आलोचना शिक्षा आयोगों और राममूर्ति और यशपाल समितियों ने की थी, वह परीक्षा प्रमाणीकरण से मुक्त नहीं हो सकी, क्योंकि अब तो परीक्षा एक विभाग है और बोर्डों के अफसरों, कर्मचारियों, उत्तर पुस्तक जांचने और प्रश्नपत्र बनाने वालों की रोजी-रोटी है।
परीक्षा को लेकर कुछ विकल्प भी तलाशे गए। वार्षिक परीक्षा के बजाय सेमेस्टर प्रणाली लागू कर हर छह माह में परीक्षा और निर्धारित टेस्टों को आजमाया गया। कॉलेजों में सेमिनार-प्रणाली से पेपर रीडिंग का प्रावधान किया गया, लेकिन सेमेस्टर प्रणाली का यह परिणाम निकला कि उस प्रणाली का ही विरोध शुरू हो गया। तर्क यह है कि इस प्रणाली से पाठ्यक्रम पूरा नहीं होता। यह तर्क आंशिक सच हो सकता है।
वास्तविकता यह है कि कुछ अपवादों को छोड़ कर और खासकर हिंदी क्षेत्र में शिक्षक स्कूल नहीं जाते या जाते हैं तो ठीक से पढ़ाते नहीं और कॉलेज में तो एक-एक लाख की मोटी तनख्वाह लेने वाले प्राध्यापक, सहायक प्राध्यापक आदि कक्षाओं में जाते ही नहीं और जो जाते हैं उनका उनकी ईमानदारी को लेकर मजाक उड़ाया जाता है। तोहमत यह कि छात्र ही कक्षा में नहीं आते। लड़कियों के कॉलेज में छात्राएं तो कक्षा में हैं, मगर प्राध्यापक महोदय या महोदया स्टाफ रूम में फैशन या अन्य रुचियों को लेकर बातचीत में मशगूल हैं। ऐसे में सेमेस्टर प्रणाली का विरोध स्वाभाविक है। जब पढ़ाई ही नहीं होगी, तो परीक्षा क्या होगी?
परीक्षा में अक्सर छात्र-छात्राएं फेल-पास होते हैं। सबसे बड़ा सच तो यह है कि परीक्षा में खुद परीक्षा फेल हो जाती है। परीक्षा में छात्रों के अलावा अन्य कारकों पर ध्यान ही नहीं दिया जाता। तात्पर्य यह कि परीक्षा में केवल छात्र-छात्राएं फेल नहीं होते, उनके साथ पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तक, शिक्षा-प्रणाली, शिक्षा-प्रशिक्षण, शिक्षा-व्यवस्था और अभिभावक की चेतना भी फेल होती है। अक्सर छात्रों के फेल-पास का तो मूल्यांकन होता है, मगर उक्त कारकों का या तो मूल्यांकन होता नहीं, या होता भी हो तो उसे प्रकट नहीं किया जाता।
परीक्षा कक्षावार प्रोन्नति की पद्धति है। वह श्रेष्ठ, कम श्रेष्ठ, अश्रेष्ठ में विभाजन करती है। गांव-शहर, सरकारी-निजी, उच्च कॉरपोरेट घराने और शिशु मंदिर, गरीबों की बस्तियों के उपेक्षित स्कूल, मदरसे, विशेष बच्चों के स्कूल, अल्पसंख्यक स्कूल तो स्कूलों की वर्तमान परिभाषा में शामिल हैं, लेकिन कोचिंग कक्षाएं स्कूल न होकर पास कराने की गारंटी देती दुकानें हैं। परीक्षा प्रतियोगिता पैदा करती है और प्रतियोगिता तनाव पैदा करती है। एक-दो अंकों, विषयों में कम-ज्यादा नंबर या श्रेणियों या पास-फेल के कारण जब बच्चे आत्महत्या करते या अवैधानिक तरीकों का इस्तेमाल करते हैं, या परीक्षा बोर्ड तरह-तरह के घोटाले और भ्रष्टाचार करते हैं, तो लगता है, परीक्षाएं तो शिक्षा के साथ, बच्चों के साथ, समाज के साथ एक प्रकार का धोखा है।
जिस प्रमाण-पत्रीकरण को लेकर परीक्षा की आलोचना शिक्षा आयोगों और राममूर्ति और यशपाल समितियों ने की थी, वह परीक्षा प्रमाणीकरण से मुक्त नहीं हो सकी, क्योंकि अब तो परीक्षा एक विभाग है और बोर्डों के अफसरों, कर्मचारियों, उत्तर पुस्तक जांचने और प्रश्नपत्र बनाने वालों की रोजी-रोटी है।
परीक्षा को लेकर कुछ विकल्प भी तलाशे गए। वार्षिक परीक्षा के बजाय सेमेस्टर प्रणाली लागू कर हर छह माह में परीक्षा और निर्धारित टेस्टों को आजमाया गया। कॉलेजों में सेमिनार-प्रणाली से पेपर रीडिंग का प्रावधान किया गया, लेकिन सेमेस्टर प्रणाली का यह परिणाम निकला कि उस प्रणाली का ही विरोध शुरू हो गया। तर्क यह है कि इस प्रणाली से पाठ्यक्रम पूरा नहीं होता। यह तर्क आंशिक सच हो सकता है।
वास्तविकता यह है कि कुछ अपवादों को छोड़ कर और खासकर हिंदी क्षेत्र में शिक्षक स्कूल नहीं जाते या जाते हैं तो ठीक से पढ़ाते नहीं और कॉलेज में तो एक-एक लाख की मोटी तनख्वाह लेने वाले प्राध्यापक, सहायक प्राध्यापक आदि कक्षाओं में जाते ही नहीं और जो जाते हैं उनका उनकी ईमानदारी को लेकर मजाक उड़ाया जाता है। तोहमत यह कि छात्र ही कक्षा में नहीं आते। लड़कियों के कॉलेज में छात्राएं तो कक्षा में हैं, मगर प्राध्यापक महोदय या महोदया स्टाफ रूम में फैशन या अन्य रुचियों को लेकर बातचीत में मशगूल हैं। ऐसे में सेमेस्टर प्रणाली का विरोध स्वाभाविक है। जब पढ़ाई ही नहीं होगी, तो परीक्षा क्या होगी?
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