यदा यदा ही धर्मस्य श्लोक का तात्पर्य हिंदी में बताईये|
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THIS SHLOK IS TAKEN BY THE GREAT BOOK MAHABHARATHA
हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ॥7॥
यदा यदा ही धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारत |
अभ्युत्थानम् धर्मस्य, तदात्मनं सृजाम्यहम् || गीता 4/7
अर्थ : हे अर्जुन ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं प्रकट होता हूँ ।
मनुष्य में धर्म और अधर्म दोनों ही प्रवृत्तियाँ होती है।इन दोनों धर्मों के बीच मानुष संघर्ष करता रहता है| कभी भीतर धर्म बढ़ता है और कभी अधर्म। लेकिन जब व्यक्ति के अंदर अधर्म का भाव आता है तब उसके मन में उस अधर्म को न करने की एक व्यतिरेक भावना भी ज़रूर आती है, भले वो उसको ध्यान दे या न दे |और अधर्म करने पर बार-बार दिल यह ज़रूर कहता रहता है कि जो कर रहे हो, वो गलत है। ऐसा नहीं कि जब कुछ बड़ा अधर्म करेंगे तभी अंदर की आवाज़ आएगी| इसी आवाज़ को मानव नज़रअंदाज़ करके अधर्म करता हैं।हमें अधर्म न करने की सलाह देती रहती है उपना मन|साद बुधि के रूप में कृष्ण जी अपनी प्रेरणाओं से हर व्यक्ति के अंदर अपनी अनुभूति का अहसास कराते ही रहेंगे । यही इस पद्य का तात्पर्य है|