1
मानुष हौं तो वही रसखानि,
बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन
जो पसु हौं, तो कहा बस मेरो,
चरौं नित नंद की धेनु मँझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को,
जा धरयो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं, तो बसेरो करौं,
मिलि कालिंदी कूल कदंब की डारन।।
2
या लकुटी अरु कामरिया पर,
राज तिहूँ पुर कौ तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि, नवौ निधि को सुख,
नंद की गाइ चराइ बिसारौं।
इन आँखनि सौ रसखानि कबौं,
ब्रज के बन बाग-तड़ाग निहारौं।
कोटिक हू कलधौत के धाम,
करील के कुंजन ऊपर वारौं।।
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लकुटी अरु कामरिया पर,
राज तिहूँ पुर कौ तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि, नवौ निधि को सुख,
नंद की गाइ चराइ बिसारौं।
इन आँखनि सौ रसखानि कबौं,
ब्रज के बन बाग-तड़ाग निहारौं।
कोटिक हू कलधौत के धाम,
करील के कुंजन ऊपर वारौं।।
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