1. सुदर्शन
सुदर्शन जी का वास्तविक नाम बदरीनाथ था। इनका जन्म सियालकोट
(वर्तमान पाकिस्तान) में सन् 1895 में हुआ था। इन्होंने उर्दू में प्रकाशित होने
वाले दैनिक पत्र 'आर्य-गजट' के संपादक के रूप में कार्य किया। मुंबई में 16
दिसंबर 1967 को इनका निधन हो गया। इनका दृष्टिकोण सुधारवादी था।
इनकी पहली कहानी 'हार की जीत' थी, जो सन् 1920 में 'सरस्वती' में
प्रकाशित हुई थी। पुष्पलता', 'सुप्रभात', 'सुदर्शन सुधा', 'पनघट' इनके
प्रसिद्ध कहानी संग्रह तथा परिवर्तन', 'भागवंती', 'राजकुमार सागर' प्रसिद्ध
उपन्यास हैं।
सुदर्शन की भाषा सहज, स्वाभाविक, प्रभावी तथा मुहावरेदार है। सुदर्शन
को गद्य और पद्य दोनों में महारत हासिल थी। आपने अनेक फिल्मों की
पटकथा और गीत भी लिखे।
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सुदर्शन (1895-1967) प्रेमचन्द परम्परा के कहानीकार हैं। इनका दृष्टिकोण सुधारवादी है। ये आदर्शोन्मुख यथार्थवादी हैं। मुंशी प्रेमचंद और उपेन्द्रनाथ अश्क की तरह सुदर्शन हिन्दी और उर्दू में लिखते रहे हैं। उनकी गणना प्रेमचंद संस्थान के लेखकों में विश्वम्भरनाथ कौशिक, राजा राधिकारमणप्रसाद सिंह, भगवतीप्रसाद वाजपेयी आदि के साथ की जाती है। अपनी प्रायः सभी प्रसिद्ध कहानियों में इन्होंने समस्यायों का आदशर्वादी समाधान प्रस्तुत किया है। चौधरी छोटूराम जी ने कहानीकार सुदर्शन जी को जाट गजट का सपादक बनाया था। केवल इसलिये कि वह पक्के आर्यसमाजी थे और आर्य समाजी समाज सुधारर होते हैं। एक गोरे पादरी के साथ टक्कर लेने से गोरा शाही सुदर्शन जी से चिढ़ गई। चौ. छोटूराम, चौ. लालचन्द से आर्यसमाजी सपादक को हटाने का दबाव बनाया। चौ. छोटूराम अड़ गये। सरकार की यह बात नहीं मानी। यह घटना प्रथम विश्व युद्ध के दिनों की है। सुदर्शन जी 1916-1917 में रोहतक में कार्यरत थे।
सुदर्शन की भाषा सरल, स्वाभाविक, प्रभावोत्पादक और मुहावरेदार है। इनका असली नाम बदरीनाथ है। इनका जन्म सियालकोट में [[1895] में हुआ था। प्रेमचन्द के समान वह भी ऊर्दू से हिन्दी में आये थे।
लाहौर की उर्दू पत्रिका हज़ार दास्ताँ में उनकी अनेकों कहानियां छपीं। उनकी पुस्तकें मुम्बई के हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय द्वारा भी प्रकाशित हुईं। उन्हें गद्य और पद्य दोनों ही में महारत थी। "हार की जीत" पंडित जी की पहली कहानी है और १९२० में सरस्वती में प्रकाशित हुई थी।
मुख्य धारा के साहित्य-सृजन के अतिरिक्त उन्होंने अनेकों फिल्मों की पटकथा और गीत भी लिखे हैं। सोहराब मोदी की सिकंदर (१९४१) सहित अनेक फिल्मों की सफलता का श्रेय उनके पटकथा लेखन को जाता है। सन १९३५ में उन्होंने "कुंवारी या विधवा" फिल्म का निर्देशन भी किया। वे १९५० में बने फिल्म लेखक संघ के प्रथम उपाध्यक्ष थे। वे १९४५ में महात्मा गांधी द्वारा प्रस्तावित अखिल भारतीय हिन्दुस्तानी प्रचार सभा वर्धा की साहित्य परिषद् के सम्मानित सदस्यों में थे। उनकी रचनाओं में तीर्थ-यात्रा, पत्थरों का सौदागर, पृथ्वी-वल्लभ आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। फिल्म धूप-छाँव (१९३५) के प्रसिद्ध गीत तेरी गठरी में लागा चोर, बाबा मन की आँखें खोल आदि उन्ही के लिखे हुए हैं।
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