Hindi, asked by paras9086, 6 months ago

1. योग के आठ अंगों के नाम बताओ।

2. पाँचों यमों का नामोल्लेख करके किसी
एक यम का अर्थ बताओ

3. पाँचों नियमों का नाम बताकर शौच का अर्थ बताओ।

4. प्रत्याहार का स्वरूप बताओ।

5.धारण और ध्यान का अन्तर बताओ।​

who will answer I will follow him​

Answers

Answered by ashishraj1196
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Explanation:

यम :- अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य अपरिग्रह अक्रोध और अनसूया.

किसी भी प्राणी को किंचित मात्र भी दुख नही पहुंचाना अहिंसा की श्रेणी में आता है,मन से वाणी से और कार्य से भी हिंसा होती है इन कारकों से भी किसी को दुख नही पहुंचाना चाहिये.अहिंसा योग मार्ग में सिद्धि प्रदान करने वाली है,धर्म और अधर्म का भेद जानकर जो यथार्थ बात कही जाती है वही सत्य का रूप है,चोरी से या बलपूर्वक किसी का धन काया या अन्य कारक को हडप लेना स्तेय की श्रेणी में आता है,इसके विपरीत अस्तेय की श्रेणी में आता है,मैथुन का त्याग कर देना ब्रह्मचर्य की श्रेणी में आता है,आपत्तिकाल में भी द्रव्य का संग्रह नही करना अपरिग्रह के रूप में जाना जाता है। यह योगमार्ग मे सिद्धि को देने वाला है। जो किसी के प्रति क्रूरता से कर्म करता है या बात करता है जिससे मनसा वाचा कर्मणा दुख की प्राप्ति होती है वह क्रोध के रूप में जाना जाता है। और इसके विपरीत दया भाव से बात करना और प्राणी मात्र के प्रति क्षमा की भावना रखना ही अक्रोध की श्रेणी में आता है। धन और मान सम्मान आदि के द्वारा कोई भी व्यक्ति आगे बढता है और जो लोग उस आगे बढते हुये व्यक्ति को देख कर जलते है,डाह करते है,उसे असूया यानी ईर्ष्या के नाम से कहा जाता है,और इस असूया को त्याग कर जो अनुसूया को प्राप्त कर लेते है वे ही उत्तम रूप से समान भाव से देखने की श्रेणी में आजाते है।

नियम:- तप स्वाध्याय संतोष शौच भगवान विष्णु की आराधना और संध्या उपासना आदि नियम के अन्दर आते है। चन्द्रायण नियम के अनुसार व्रत आदि के द्वारा शरीर को कृश करना ही तप कहलाता है,तप के द्वारा योग की प्राप्ति जल्दी होती है। ऊँकार उपनिषद द्वादश अक्षर मंत्र (ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय) अष्टाक्षर मंत्र (ऊँ नमो नारायण) तथा तत्वों की मीमांसा आदि के रूप में स्वाध्याय है यह योग का अच्छा साधन है। जो स्वाध्याय त्याग देता है उसे योग प्राप्त नही होता है। केवल स्वाध्याय करने से भी पाप का नाश जरूर हो जाता है,स्वाध्याय से सन्तुष्ट होकर कोई भी कार्य आराम से किया जा सकता है। जप तीन प्रकार के होते है,वाचिक उपांशु और मानस,विधिपूर्वक अक्षर और पद को बोलते हुये जो मन्त्र का उच्चारण किया जाता है,उसे वाचिक जप बताया जाता है,इस प्रकार का जाप सम्पूर्ण यज्ञ आदि का फ़ल देने वाला बताया जाता है। जो मन्द स्वर से एक के बाद एक पद को पढते जाते है वह उपांशु की श्रेणी में माना जाता है। यह पहले जाप की अपेक्षा दूना फ़ल देने वाला माना जाता है,इसके बाद मन ही मन अक्षरों और श्रेणियों का चिन्तन करते हुये उसके अर्थ पर ध्यान दिया जाता है वह मानस जाप के रूप में जाना जाता है,यह जाप जल्दी ही योग सिद्धि के लिये माना जाता है। जप से इष्टदेव की स्तुति करने वाले व्यक्ति पर वह खुश रहते है। पूर्व मे किये गये कर्म के अनुसार जो मिल जाये उसी से सन्तुष्ट रहने को संतोष कहा जाता है,जिसे संतोष नही होता है वह दुखी रहता है,और यह योग मार्ग में बाधा के रूप में जाना जाता है। जो भी भोगने के लिये वस्तु और व्यक्ति की कामना फ़लीभूत होती है उससे कभी भी कामना की शान्ति नही होती है और जितना भोगा जाये उतनी ही कामना बढती जाती है,कामना का त्याग करने के बाद जो भी मिलता है उसी में खुश रहकर धर्म के पालन में लगा रहना ही कामना को त्यागने के नाम से जाना जाता है। बाह्य शौच और अन्दर के शौच दोनो को अलग अलग देखा गया है,मिट्टी जल साबुन आदि पदार्थों से शरीर को साफ़ करना बाह्य शौच के अन्दर आते है,अपनी भावनाओं को शुद्ध रखना मन में बुरे विचार नही आना आन्तरिक शौच के रूप में माने जाते है,आन्तरिक शुद्धि से विहीन होकर अगर कोई भी बाहरी यज्ञ आदि किये जाते है वे राख में डाली हुयी आहुति के समान माने जाते है। इसलिये राग विराग आदि दोषों को त्याग कर सुखी रहना चाहिये। जो वाणी से धर्म का गुणगान करता है और मन से पाप की इच्छा रखता है वह पापियों का सिरमौर माना जाता है। मन वाणी और क्रिया द्वारा जो भगवान विष्णु की आराधना की जाती है वही भगवान विष्णु की आराधना कहलाती है। सुबह दोपहर और शाम के समय जो मनसे वाणी से कर्म से आराधना की जाती है वही सन्ध्या उपासना के रूप में जानी जाती है।

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