10.च
देश का अन्नदाता किसान स्वयं कि
स्वयं इतना सीधा और सरल है कि अ
वर्ग ने लाभ उठाकर उसे हमेशा दबाए
उसकी जागरूकता का भी वर्णन किया है।
हाथ हैं दोनों सधे-से
गीत प्राणों के सँधे-से
और उसकी मूठ में, विश्वास
जीवन के बँध-से
धकधकाती धरणि थर-थर
उगलता अँगार अंबर
भुन रहे तलुवे, तपस्वी-सा
खड़ा वह आज तन कर
शून्य-सा मन, चूर है तन
पर न जाता वार खाली
चल रही उसकी कुदाली।
वह सुखाता खून पर-हित
वाह रे साहस अपरिमित
से वह खड़ा है
विश्व-वैभव से अपरिचित
कर रहा वह वार कह हूँ
साथ में समवेदना के
जल रहा संसार धू-धू
शुष्क छाती फाड़ डाली
जीवन-मूल्य
देश का अन्नदाता
किसान को कहा
स्वेद कण पड़ते कभी चू
कौन-सा लालच? धरा की
जाता है।
78
चल रही उसकी कुदाली।
हिंदी (भाग - 7)
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