14. निम्नलिखित वाक्यों की सप्रसंग व्याख्या करें
(क) बाकी चुकाने के लिए ही तो हमारा जनम हुआ है।
(ख) हल्कू ने रुपए लिए और इस तरह बाहर चला मानो अपना हृदय निकालकर देने जा रहा हो।
(ग) अंधकार के उस अनंत सागर में यह प्रकाश एक नौका के समान हिलता, मचलता हुआ जान
पड़ता था।
(घ) तकदीर की खूबी है । मजूरी हम करें, मजा दूसरे लूटे ।
कहानीजन
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Answer:
baki chukane ke liye janm huaa hai
Answer:
प्रेमचंद की कहानी “पूस की रात” किसान की स्थिति का प्रामाणिक दस्तावेज है। इसमें उसकी ऋण ग्रस्तता, मौसम की मार, कर्ज चुकाने की असमर्थता, किसान का परिवेश व पशुधन के साथ रिश्ता, कृषि से हताशा और ऊब, महिलाओं का ग्रामीण अर्थव्यवस्था को चलाने में केंद्रीय योगदान समझा जा सकता है।
Explanation:
(क) पूस की रात से गृहीत यह पंक्ति मुन्नी द्वारा कथित है। हल्कूने किसी प्रसंग में सहना में रुपये कर्ज लिए थे वे अभी तक नहीं सधे हैं मानो ऋण न होकर द्रौपदी की साड़ी हों।हों कर्ज मधाने में निरन्तर परेशानी झेलते, अभाव अनुभव करते-करते दोनों बेहाल हैं। इस स्थिति से उत्पन्न उनकी निराशा से यह व्यथापूर्ण कथन निकला है। दोनों को लगता है कि कर्ज से कभी पक्ति नहीं होगा। यह उनकी नियति जैसी बन गयी है।
(ख) इन पक्तियों में प्रेमचन्द जी ने उत्प्रेक्षा अलंकार का सहारा लेकर बताना चाहा है कि हल्कू के लिए तीन रूपये प्राण की तरह मूल्यवान थे। पैसा दे देने से अपमान से तो मुक्ति मिल जायेगी किन पूरा जाड़ा पीड़ित करेगा। शायद जान भी चली जाये। इस अनिश्चयपूर्ण भविष्य की पीड़ा ने म का मूल्य बढ़ा दिया है। अतः प्रेमचन्द की दृष्टि में वे पैसे पैसे नहीं प्राण की तरह महत्त्वपूर्ण हैं।
(ग) अंधकार के उस आनंद सागर से यह प्रकाश एक नौका के समान हिलता, मचलता हुआ जान पड़ता था। हल्कू अलाव के सामने बैठा आग ताप रहा था। एक क्षण में उसने दोहर उतारकर बगल में दबा ली, दोनों पाँव फैला दिये, मानो ठंड को ललकार रहा हो, 'तेरे जी में जो आए सो कर । ' ठंड की असीम शक्ति पर विजय पाकर वह विजय-गर्व को हृदय में छिपा न सकता था।
(घ) पूस की रात की इन पंक्तियों में हल्कूने भाग्य की विडम्बना की ओर संकेत किया है। उसका जीवन कमानेवाला खायेगा की उक्ति का मजाक है। वह खेती करता है कर्ज सधाने के लिए और मजदूरी करता है पेट भरने के लिए। फिर भी उसे न भर पेट भोजन मिलता है और न जाड़ा म बचने के लिए अपेक्षित वस्त्र। जबकि समाज में अनेक लोग बिना कमाये दूसरों के श्रम पर जीकर मौज कर रहे हैं। इसी कर्म और भाग्य की विपरीतता पर ये पंक्तियाँ व्यंग्य करती हैं। व्यंग्य के मूल में विषमता से उत्पन्न पीड़ा की करुणा है।
#SPJ3