16. वन के मार्ग में
सवैया
पुर तें निकसी रघुबीर-बधू, धरि धीर दए मग में डग द्वै।
झलकी भरि भाल कनी जल की, पुट सूखि गए मधुराधर वै।।
फिरि बूझति हैं, “चलनो अब केतिक, पर्नकुटी करिहौं कित है?"।
तिय की लखि आतुरता पिय की अँखियाँ अति चारु चलीं जल च्वै।।
"जल को गए लक्खनु, हैं लरिका परिखौ, पिय! छाँह घरीक द्वै ठाढ़े।
पोंछि पसेउ बयारि करौं, अरु पायँ पखारिहौं भूभुरि-डाढ़े।।"
तुलसी रघुबीर प्रियाश्रम जानि कै बैठि बिलंब लौं कंटक काढ़े।
जानकी नाह को नेह लख्यौ, पुलको तनु, बारि बिलोचन बाढ़े।।
Answers
Answered by
0
Answer:
kathan ekadam sahi hai
Similar questions