History, asked by shivanidograbzp89, 10 months ago

1919 me ghandhi ji kaha se aa rahe tha ​

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Answered by anvesha12340
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Explanation:

महात्मा गांधी के पत्र ‘यंग इंडिया' का यह शताब्दी वर्ष है। इस पत्र ने तबके शिक्षित भारत के विचारों को गढ़ने और वैश्विक नजरिये को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वेबसाइट्स की भीड़ से घिरी दुनिया अब भी उससे कुछ सीख सकती है। आज यंग इंडिया का नाम बहुत कम लोग जानते होंगे। हालांकि यह उसका शताब्दी वर्ष है। गांधी ने इस अंग्रेजी अखबार को सन् 1919 में शुरू किया था। वह लगातार 12 साल तक इसे पूरी लगन के साथ निकालते रहे। आज वेबसाइट्स से घिरी दुनिया से जुड़े दस करोड़ लोगों में कुछ तो इस पत्र के बारे में जरूर जानना चाहेंगे। यह अलग बात है कि वह बीते 88 साल से गुमनाम है।

यह वह दौर था, जब देश गुस्से में उबल रहा था। इस आठ पन्नों के साप्ताहिक अखबार में तब प्रमुख रूप से प्रथम विश्व युद्ध की आड़ में बने अमानवीय रोलेट कानून के जरिये स्थानीय लोगों की आजादी का हनन और जालियांवाला बाग नरसंहार के मुद्दे छाए रहते थे। पत्र के संपादकीय लेखों ने उस समय के सार्वजनिक जीवन को महत्वपूर्ण मोड़ दिया। यंग इंडिया अपने समय (1919 से 1932) में देश में अंग्रेजी जानने वाले प्रमुख लोगों का प्रमुख पत्र बन गया था।

उनके गुजराती साप्ताहिक ‘नवजीवन' की शुरुआत अगस्त 1919 में हुई थी, जिसकी 12 हजार प्रतियां बिकी थीं। 8 अक्तूबर, 1919 को ‘यंग इंडिया' के संपादकीय में गांधी ने जिक्र किया कि देश की 80 % किसान व मजदूर जनसंख्या अंग्रेजी नहीं जानती। ऐसे में यह अंगे्रजी पत्र भारत की जनसंख्या के समुद्र के महज बूंद भर लोगों तक अपनी पहुंच रखता है। फिर यह अंग्रेजी पत्र क्यों? जवाब में गांधी कहते हैं कि वह इन मुद्दों को केवल देश के किसानों और मजदूरों तक ही नहीं पहुंचाना चाहते, बल्कि वह शिक्षित भारत के साथ-साथ मद्रास प्रेसीडेंसी के लोगों से भी जुड़ना चाहते हैं और इसके लिए अंग्रेजी जरूरी है। इस तरह गांधी के इस पत्र की शुरुआत हुई।

1919 में बंबई से शुरू होकर जल्द ही यह पत्र अहमदाबाद पहुंच गया। शुरू में इसका मूल्य एक आना रखा गया। तब उसकी 1200 प्रतियां बिकती थीं। तमाम चुनौतियों के बीच किसी नए पत्र के लिए यह आगाज बुरा नहीं था। भले ही शासन को चुनौती दे रहे इस पत्र की राजनीतिक अहमियत थी, पर इतनी कम प्रसार संख्या वाला पत्र बिना पैसे के कैसे जीवित रह सकता था? इसी संपादकीय में उन्होंने लिखा .‘मैं किसी ऐसे पत्र का संपादन नहीं करूंगा, जो अपना खर्च नहीं निकाल सकता।' गांधी ने अपने ‘तमिल दोस्तों' से निवेदन किया कि वे कम से कम 2500 नए ग्राहक जोड़ें। ऐसा करने की एक और वजह थी। यंग इंडिया की विज्ञापनों से पैसा कमाने की कोई मंशा नहीं थी।

इस तरह यंग इंडिया के संस्थापक संपादक की आकर्षक अपील, उनके संदेश की ताकत और जनभावना से जुड़ाव का ही नतीजा था कि इसकी बिक्री जल्द ही 2500 हो गई। तीन साल के अंदर इसकी 40 हजार प्रतियां बिकने लगीं। जनमत बनाने में इसकी भूमिका बढ़ रही थी। ‘शिक्षित भारत' इस पत्र का उत्सुक छात्र बन गया था। इस पत्र को संपादित करने वाले केवल गांधी नहीं थे। अलग-अलग समय में इसे खिलाफत नेता मोहम्मद अली के दामाद शोएब कुरैशी, सी. राजगोपालाचारी, जॉर्ज जोसेफ, जेसी कुमारप्पा और जयरामदास दौलतराम ने भी संपादित किया।

यंग इंडिया में उन्होंने तीन लेख लिखे। ‘टैंपरिंग विद लॉयल्टी (29 सितंबर, 1921), ‘द पजल एंड इट्स सॉल्यूशन' (15 दिसंबर, 1921) और ‘शेकिंग द मेनीज' (23 फरवरी, 1922)। इन सबका नतीजा उस मुकदमे के तौर पर सामने आया जिसे ‘द ग्रेट ट्रायल' के नाम से भी जाना जाता है। वहीं उन्होंने अपना यादगार वक्तव्य दिया था, ‘मैं यहां किसी रियायत की अर्जी देने नहीं आया हूं। कानून की नजर में जिसे बड़ा जुर्म कहा जा रहा है, वह मेरी नजर में एक नागरिक का सबसे बड़ा कर्तव्य है। मैं यहां हूं। और उसके लिए अधिकतम सजा भुगतने के लिए तैयार हूं।' तब न्यायाधीश ने उन्हें 1908 में लोकमान्य तिलक पर राजद्रोह के मुकदमे में छह साल की सजा के फैसले का हवाला दिया। और राजद्रोह के आरोप में छह साल की सजा सुनाई। सजा मिलने पर गांधी ने कहा था कि वह इससे फख्र महसूस कर रहे हैं।

यंग इंडिया में ही गांधी की कई महत्वपूर्ण टिप्पणियां पहली बार दर्ज हुईं। जैसे, ‘भूखे और बेरोजगार लोगों के लिए ईश्वर का एक ही रूप है- काम और मेहनतानेके तौर पर खाने पीने का वादा. . . '(13 अक्तूबर 1921)

‘आंबेडकर के लिए मेरे मन में गहरा सम्मान है।'

(12 नवंबर, 1931)

शताब्दी वर्ष में यह पत्र तीन दमदार बातें हमारे सामने रखता है:

- पहला, अभिव्यक्ति का कोई छोटा माध्यम उस छोटे पार्सल की तरह हो सकता है, जिसमें कोई बड़ा उपहार रखा हुआ हो। कोई एक संपादकीय या कॉलम कई पेजों से अधिक असर छोड़ सकता है।

- दूसरा, पाठकों की भारी संख्या एक मृगमरीचिका है, उससे न प्यास बुझती है और न नहाया जा सकता है। प्रतियोगिता में फंस कर वे धीरे-धीरे विचारों के वाहक बनने के बजाए कारोबारी हो जाते हैं।

- तीसरा, कोई पत्र या अखबार देश के जनमत को बनाने और उसे दिखाने वाला होना चाहिए। अगर वह केवल जनमत बनाता है, तो धीरे-धीरे ऐसे बाजे में बदल जाता है, जिसे उसके अपने सिवा कोई नहीं सुनता। और अगर वह केवल जन मानस को दिखाता है तो एक खूबसूरत कढ़ाई में जड़ा दर्पण बनकर रह जाता है।

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