1990 के बाद औधोगिक नीति मे परिवर्तन की आवश्यकता क्यो हुई
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औद्योगिक नीति नीतिगत बहस के केंद्र स्तर पर वापस आ गई है, जबकि दुनिया नाटकीय परिवर्तनों से गुजर रही है। यह लेख औद्योगिक नीति के एक नए सिद्धांत को विकसित करके बहस में योगदान देता है, जिसमें कुछ मुद्दों को शामिल किया गया है जो अब तक उपेक्षित हैं और आर्थिक वास्तविकता में हाल के परिवर्तनों को ध्यान में रखते हैं। लेखक यह पता लगाते हैं कि कुछ उपेक्षित मुद्दों का समावेश कैसे होता है - अनिश्चितता के तहत प्रतिबद्धता, उत्पादन में सीखना, व्यापक आर्थिक प्रबंधन (विशेष रूप से मांग प्रबंधन), और संघर्ष प्रबंधन - सिद्धांत को बदलता है। वे तब जांच करते हैं कि आर्थिक नीति में हालिया परिवर्तनों के प्रकाश में औद्योगिक नीति के सिद्धांत को कैसे संशोधित किया जाना चाहिए: वैश्विक मूल्य श्रृंखला, वित्तीयकरण और नए साम्राज्यवाद का उदय। इस योगदान का उद्देश्य औद्योगिक नीति के लिए एक व्यावहारिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देना और बदलती दुनिया में नीतिगत हस्तक्षेप के लिए नए क्षेत्रों की ओर इशारा करना है।
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1991 की नई आर्थिक नीति के मुख्य उद्देश्य:-
1. भारतीय अर्थव्यवस्था को 'वैश्वीकरण' के मैदान में उतारना के साथ-साथ इसे बाजार के रूख के अनुरूप बनाना था।
2. मुद्रास्फीति की दर को नीचे लाना और भुगतान असंतुलन को दूर करना ।
3. आर्थिक विकास दर को बढ़ाना और पर्याप्त विदेशी मुद्रा भंडार का निर्माण करना ।
4. आर्थिक स्थिरीकरण को प्राप्त करने के साथ-साथ सभी प्रकार के अनावश्यक प्रतिबंध को हटाकर एक बाजार अनुरूप अर्थव्यवस्था के लिए आर्थिक परिवर्तिन करना था।
5.प्रतिबंधों को हटाकर, माल, सेवाओं, पूंजी, मानव संसाधन और प्रौद्योगिकी के अंतरराष्ट्रीय प्रवाह की अनुमति प्रदान करना था।
6. अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में निजी कंपनियों की भागीदारी बढ़ाना था। यही कारण है कि सरकार के लिए आरक्षित क्षेत्रों की संख्या को घटाकर 3 कर दिया गया है।
1991 के मध्य की शुरूआत में भारत सरकार ने व्यापार, विदेशी निवेश, विनिमय दर, उद्योग, राजकोषीय व्यवस्था आदि को असरदार बनाने के लिए अपनी नीतियों में कुछ क्रांतिकारी परिवर्तन किये ताकि अर्थव्यवस्था की धार को तेज किया जा सके।
नई आर्थिक नीति का मुख्य उद्देश्य एक साधन के रूप में अर्थव्यवस्था की दिशा में अधिक प्रतिस्पर्धी माहौल का निर्माण करने के साथ उत्पादकता और कार्यकुशलता में सुधार करना था।
नयी आर्थिक नीति के तहत निम्नलिखित कदम उठाए गए:-
(I) वाणिज्यिक बैंकों द्वारा ब्याज दर का स्वयं निर्धारण:
उदारीकरण नीति के तहत सभी वाणिज्यिक बैंकों ब्याज की दर निर्धारित करने के लिए स्वतंत्र होंगे । उन्हें भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा निर्धारित ब्याज की दरों को मानने की कोई बाध्यता नहीं होगी ।
(II) लघु उद्योग (एसएसआई) के लिए निवेश सीमा में वृद्धि:
लघु उद्योगों में निवेश की सीमा बढ़ाकर 1 करोड़ रुपये कर दी गयी है, जिससे ये कंपनियों अपनी मशीनरी को उन्नत बनाने के साथ अपनी कार्यकुशलता में सुधार कर सकते हैं।
(III) सामान आयात करने के लिए पूंजीगत स्वतंत्रता:
भारतीय उद्योग अपने समग्र विकास के लिए विदेशों से मशीनें और कच्चा माल खरीदने के लिए स्वतंत्र होंगे।
(V) उद्योगों के विस्तार और उत्पादन के लिए स्वतंत्रता:
इस नए उदारीकृत युग में अब उद्योग अपनी उत्पादन क्षमता में विविधता लाने और उत्पादन की लागत को कम करने के लिए स्वतंत्र हैं। इससे पहले सरकार उत्पादन क्षमता की अधिकतम सीमा तय करती थी। कोई भी उद्योग इस सीमा से अधिक उत्पादन नहीं कर सकता था। अब उद्योग बाजार की आवश्यकता के आधार पर स्वयं अपने उत्पादन के बारे में फैसला करने के लिए स्वतंत्र हैं।
(VI) प्रतिबंधित कारोबारी प्रथाओं का उन्मूलन:
एकाधिकार एवं प्रतिबंधात्मक व्यापार प्रथा (एमआरटीपी) अधिनियम 1969 के अनुसार, वो सभी कंपनियां जिनकी संपत्ति का मूल्य 100 करोड़ रूपये या उससे अधिक है, को एमआरटीपी कंपनियां कहा जाता था इसी कारण पहले उन पर कई प्रतिबंध भी थे, लेकिन अब इन कंपनियों को निवेश निर्णय लेने के लिए सरकार से पूर्वानुमति प्राप्त करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
1- उदारीकरण
औद्योगिक लाइसेंस और पंजीकरण को समाप्त करना:
इससे पहले निजी क्षेत्र को एक नया उद्यम शुरू करने के लिए सरकार से लाइसेंस लेना पड़ता था। इस नीति में निजी क्षेत्र को लाइसेंस और अन्य प्रतिबंधों से मुक्त कर दिया गया।
निम्न उद्योगों के लिए लाइसेंस अभी भी आवश्यक है:
(ए) परिवहन और रेलवे
(बी) परमाणु खनिजों का खनन
(सी) परमाणु ऊर्जा
(2) निजीकरण:
साधारण शब्दों में, निजीकरण का अर्थ निजी क्षेत्रों द्वारा उन क्षेत्रों में उद्योग लगाने की अनुमति देना है जो पहले सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित थे। इस नीति के तहत कई सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को निजी क्षेत्र को बेच दिया गया था। निजीकरण वह प्रक्रिया है जिसमें निजी क्षेत्र में सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों (पीएसयू) के मालिकाना हक का स्थानांतरण निजी हाथों में हो जाता है ।
निजीकरण का मुख्य कारण राजनीतिक हस्तक्षेप की वजह से पीएसयू का घाटे में चलना था। इन कंपनियों के प्रबंधक स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं कर सकते थे इसी कारण उनकी उत्पादन क्षमता कम हो गई थी। प्रतिस्पर्धा/गुणवत्ता बढ़ाने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का निजीकरण कर दिया गया।
निजीकरण के लिए उठाए गए कदम:-
1. शेयरों की बिक्री
2. पीएसयू में विनिवेश
3. सार्वजनिक क्षेत्र का न्यूनीकरण
सारांश रूप में यह कहा जा सकता है कि यदि, वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व के मानचित्र पर चमक रही है, तो इसका पूरा श्रेय 1991 में लागू की गयी नई आर्थिक नीति को जाता है।
Explanation:
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