2.4. वैज्ञानिक पद्धति से आप क्या समझते हैं?
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ब्रह्माण्ड में होने वाली परिघटनाओं के परीक्षण का सम्यक् तरीका भी धीरे-धीरे विकसित हुआ। किसी भी चीज के बारे में यों ही कुछ बोलने व तर्क-वितर्क करने के बजाय बेहतर है कि उस पर कुछ प्रयोग किये जायें और उसका सावधानी पूर्वक निरीक्षण किया जाय। इस विधि के परिणाम इस अर्थ में सार्वत्रिक (युनिवर्सल) हैं कि कोई भी उन प्रयोगों को पुनः दोहरा कर प्राप्त आंकड़ों की जांच कर सकता है।
सत्य को असत्य व भ्रम से अलग करने के लिये अब तक आविष्कृत तरीकों में वैज्ञानिक विधि सर्वश्रेष्ठ है। संक्षेप में वैज्ञानिक विधि निम्न प्रकार से कार्य करती है:
(१) ब्रह्माण्ड के किसी घटक या घटना का निरीक्षण करिए,[1]
(२) एक संभावित परिकल्पना (hypothesis) सुझाइए जो प्राप्त आकड़ों से मेल खाती हो,
(३) इस परिकल्पना के आधार पर कुछ भविष्यवाणी (prediction) करिये,
(४) अब प्रयोग करके भी देखिये कि उक्त भविष्यवाणियाँ प्रयोग से प्राप्त आंकड़ों से सत्य सिद्ध होती हैं या नहीं। यदि आंकड़े और प्राक्कथन में कुछ असहमति (discrepancy) दिखती है तो परिकल्पना को तदनुसार परिवर्तित करिये,
(५) उपरोक्त चरण (३) व (४) को तब तक दोहराइये जब तक सिद्धान्त और प्रयोग से प्राप्त आंकड़ों में पूरी सहमति (consistency) न हो जाए ।
तार्किक प्रत्यक्षवादियों का विचार था कि किसी सिद्धान्त के 'वैज्ञानिक' होने की कसौटी यह है कि उसे (कभी भी, किसी के द्वारा) जाँचा जा सके।[2][3][4] लेकिन कार्ल पॉपर का विचार था कि यह सोच गलत है। कॉर्ल पॉपर का कहना था कि कोई सिद्धान्त तब तक 'वैज्ञानिक सिद्धान्त' नहीं है, जब तक उस सिद्धान्त को किसी भी एक तरीके से गलत सिद्ध किया जा सके। [5][6][7][8]
किसी वैज्ञानिक सिद्धान्त या वैज्ञानिक परिकल्पना की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसे असत्य सिद्ध करने की गुंजाइश (scope) होनी चाहिये। जबकि मजहबी मान्यताएं ऐसी होती हैं जिन्हे असत्य सिद्ध करने की कोई गुंजाइश नहीं होती। उदाहरण के लिये 'जो जीसस के बताये मार्ग पर चलेंगे, केवल वे ही स्वर्ग जायेंगे' - इसकी सत्यता की जांच नहीं की जा सकती।