2, सत्संग : सत्संग क्या है
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सत्संग (संस्कृत सत् = सत्य, संग= संगति) का अर्थ भारतीय दर्शन में है (1) "परम सत्य" की संगति, (2) गुरु की संगति, या (3) व्यक्तियों की ऐसी सभा की संगति जो सत्य सुनती है, सत्य की बात करती है और सत्य को आत्मसात् करती है।
सत्संग वह होता है जहां वेदों का विद्वान वक्ता के रूप में है। वह विद्वान लोभ रहित हो, श्रोताओं से किसी प्रकार से धन का इच्छा व लोभ न करता हो, बातें बना कर धन या सहायता की याचना न करे अपितु अपने श्रोता व श्रद्धालु का ईश्वर व आत्मा विषयक ज्ञान देने में तत्पर हो। वह अपने श्रोता व भक्त को ईश्वर व आत्मा का ज्ञान कराकर उसे उपासना सिखाये जिससे श्रोता व भक्त ईश्वर की सही विधि से उपासना कर आत्म साक्षात्कार व ईश्वर साक्षात्कार के लक्ष्य को प्राप्त कर ले। ईश्वर व आत्मा सत्य हैं अतः इन दोनों का मिलना ही सत्संग व योग कहलाता है। स्वाध्याय करते हुए भी अध्ययनकर्ता
.ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव से एक सीमा तक एकाकार हो जाता हैं। उसे ईश्वर के स्वरूप व अपनी आत्मा के स्वरूप का ज्ञान हो जाता है। ईश्वर व आत्मा का स्वरूप जान लेने पर ईश्वर की भक्ति व उपासना स्वतः करने का मन होता है। इसके लिए वेद मन्त्रों का अर्थ ज्ञान सहित उच्चारण, वेदाधारित आध्यात्म विद्या के ग्रन्थों का अध्ययन भी सत्संग व उपासना में ही सम्मिलित होता है। सत्संग व
आत्मा का स्वरूप जान लेने पर ईश्वर की भक्ति व उपासना स्वतः करने का मन होता है। इसके लिए वेद मन्त्रों का अर्थ ज्ञान सहित उच्चारण, वेदाधारित आध्यात्म विद्या के ग्रन्थों का अध्ययन भी सत्संग व उपासना में ही सम्मिलित होता है। सत्संग व
उपासना दोनों का उद्देश्य व लक्ष्य समान है। दोनों के द्वारा हम ईश्वर व आत्मा की चर्चा व चिन्तन करते हुए ईश्वर से एकाकार होने का प्रयत्न करते हैं। ईश्वर व आत्मा दोनों का पृथक अस्तित्व व सत्ता है। दोनों मिलकर कभी एक नहीं होते परन्तु उपासना से दोनों में समीपता व निकटता स्थापित हो जाती है और जीवात्मा को ईश्वर के आनन्द का अनुभव व आनन्द की प्राप्ति हो जाती है। सत्संग वस्तुतः वैदिक विधि से उपासना करने का ही नाम है।
। इसलिये कि उपासना में ही आत्मा व ईश्वर का मेल होता है। आत्मा को ईश्वर से मिलाने का उपासना के अतिरिक्त अन्य कोई उत्तम साधन नहीं है