2. विद्यापति की काव्यभाषा पर विचार कीजिये? 350 word
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मैथिल कोकिल विद्यापति संस्कृत, अवहट्ठ और हिन्ही के महान रचनाकार हैं । बंगला वाले भी उन्हें ब्रजबुलि अर्थात बंगला भाषा के रचनाकार मानते हैं । उनकी भाषा-शैली परिष्कृत एवं अनुपम है । उनकी रचना 'कीर्तिलता' की भाषा अवहट्ठ और पदावली की भाषा मैथिली है । उन्होंने अपनी भाषा को 'देसिल वअना सब जन मिट्ठा' कहा है और अपनी रचनाओं के बारे में वह इतने आश्वस्त थे और उन्हें इतना आत्मविश्वास था कि अपनी प्रारम्भिक कृति 'कीर्तिलता' में उन्होंने घोषणा कर दी ౼
'बालचन्द विज्जावइ भासा । दुहु नहि लग्गइ दुज्जन हासा' अर्थात् बालचन्द्रमा और विद्यापति की भाषा ౼ दोनों ही दुर्जनों के उपहास से परे हैं । इसी तरह 'महुअर बुज्झइ, कुसुम रस, कब्व कलाउ छइल्ल' अर्थात् मधुकर ही कुसुम रस का स्वाद जान सकता है, जैसे काव्य रसिक ही काव्य कला का मर्म समझ सकता है ।
'कीर्तिलता' के प्रथम पल्लव में जनोन्मुख होने के सम्बन्ध में कवि ने स्वयं साफ़-साफ़ कहा है –
'सक्कअ वाणी बुहअण भावइ ।
पाउअ रस को मम्म न पावइ ।
देसिल वअना सब जन मिट्ठा ।
तें तैसन जम्पओ अवहट्टा ।'
अर्थात् संस्कृत भाषा बुद्धिमानों को ही भाती है । प्राकृत में रस का मर्म नहीं मिलता । देशी भाषा सबको मीठी लगती है, इसीलिए इस प्रकार अवहट्ट में मैं काव्य लिखता हूँ ।
ज़ाहिर है कि लोकरुचि और लोकहित के पक्ष में सोचने वाले इतने बड़े चिन्तक, जब पदावली रचने में लगे होंगे तो उन्होंने
भाषा के बारे में एक बार फिर से सोचा होगा और उसकी भाषा तत्कालीन समाज की लोकभाषा मैथिली अपनाई होगी और अपने पदों में समकालीन समाज की चित्तवृत्ति का चित्र खींचा होगा ।
महाकवि विद्यापति का जन्म 1350 ई. के आसपास वर्तमान मधुबनी ज़िला के बिसपी नामक गाँव में हुआ था । देहावसान सन् 1440 ई. हुआ था । बिसपी नामक गाँव बिहार के दरभंगा ज़िले के बेनीपट्टी थाना के अंतर्गत आता है, जो मिथिलांचल का प्रसिद्ध गांव है ।
मैथिली विद्यापति की मातृभाषा थी । उस काल के साहित्य या उससे पूर्व भी ज्योतिरीश्वर ठाकुर रचित 'वर्णरत्नाकर' के अनुशीलन से पता चलता है कि मैथिली उस समय की पर्याप्त समुन्नत भाषा है । यह सर्वमान्य तथ्य है कि मैथिली में उन्होंने विपुल परिमाण में मुक्तक काव्य लिखे हैं और उन्हें हम 'विद्यापति पदावली' के नाम से जानते हैं । विद्यापति की कीर्ति का मुख्य आधार उनकी पदावली ही है ।
विद्यापति की भाषा पर विचार करते हुए पं. शिवनन्दन ठाकुर लिखते हैं, ''भाषा के इतिहास और विशेषतः उस भाषा का इतिहास जिस पर अनेक अत्याचार हुआ हो और अभी भी हो रहा हो, जो विभिन्न विद्वानों द्वारा कभी बंगला तो कभी हिन्दी पर्यन्त बना दिया गया हो तथा जिसके मन्त्रमुग्धकारी पदों का प्रकाशन भाषाविज्ञान एवं मैथिली से अपरिचित अन्य भाषा-भाषी द्वारा होने के कारण अन्यान्य भाषाओं के रंग में इस तरह रंग दिया गया हो कि उसे विद्यापतिकालीन मैथिली के शुद्ध रूप में उपस्थित करना कठिन ही नहीं असम्भव जैसा हो गया हो ౼ वह स्थिति वस्तुतः अत्यन्त रोचक और चित्ताकर्षक होगा