Hindi, asked by pritiparjapat123, 6 months ago

3. सूरदास की भक्ति भावना का संक्षेप में विवेचन कीजिए। long answer

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Answered by parwarsehfawat
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Answer:

उनकी भक्ति भावना अन्य सभी कृष्ण भक्तकवियों में अत्यधिक प्रखर है। उनका भक्तिसम्बन्धी दृष्टिकोण स्थिर न होकर गतिशील रहा है। दास भक्ति से आरम्भ करके वे अन्ततः रागानुगाभक्ति जक पहुँचे। सूरदास की भक्ति का दार्शनिक आधार वल्लभाचार्य का 'शुद्धाद्वैतवाद' दर्शन है।

Explanation:

पूरा नाममहाकवि सूरदासजन्मसंवत् | सूरदास वल्लभाचार्य के शिष्य थे। उनके काव्य में वल्लभाचार्य द्वारा प्रतिपादित कृष्ण स्वरूप की प्रतिष्ठा स्वाभाविक रूप से हुई है। सूरदास की भक्ति में अंतःकरण की प्रेरणा तथा अंतर की अनुभूति की प्रधानता है। उनके काव्य में अभिव्यक्त भक्ति-भावना के दो चरण देखे जा सकते हैं-

पहला चरण वल्लभाचार्य से मिलने के पूर्व का है, जिसमें सूरदास वल्लभ संप्रदाय में दीक्षित होने से पूर्व दैन्यभाव पर आधारित भक्ति के पदों की रचना कर रहे थे।

दूसरा चरण वल्लभाचार्य से मिलने के बाद आरंभ होता है, जब सूरदास वल्लभ संप्रदाय में दीक्षित होकर पुष्टिमार्गीय भक्ति पर आधारित भक्ति के पदों की रचना की ओर प्रवृत हुए। सूरदास की भक्ति भावना में इस प्रकार के पदों का बाहुल्य देखा जा सकता है।

दास्य भाव भक्ति

भक्ति मूलत: भावोद्गार है। सूरदास ने अपनी भक्ति में ईश्वर के समक्ष अनेक प्रकार की विनय भावना व्यक्त की है। सूरदास ने स्वयं को अपने ईश्वर का तुच्छ सेवक मानते हुए उनके समक्ष दैन्य प्रकट किया है। इस कारण सूरदास की भक्ति ‘दास्य भाव’ की भक्ति कहलाती है, जिसमें भक्त स्वयं को अपने ईश्वर का दास मानकर उनकी सेवा और भक्ति करता है। इस संदर्भ में एक कहावत प्रचलित है कि सूरदास जब गाऊघाट पर रहते थे तो उन्हें वहां एक दिन वल्लभाचार्य के आने का पता चला। सूरदास उचित समय पर वल्लभाचार्य से मिलने गए और उनके आदेश पर अपने रचित दो पद उन्हें गाकर भी सुनाए-

‘हौं हरि सब पतितन कौ नायक’

एवं

‘प्रभु! हौं सब पतितन कौ टीकौ।’

वल्लभाचार्य ने सूरदास के इन दीनतापूर्ण पदों को सुना और उन्होंने सूरदास से कहा कि-

"जो सूर ह्वै कै ऐसो घिघियात काहे को है? कुछ भगवत् लीला वर्णन करौ।"

इस पर सूरदास ने वल्लभाचार्य से कहा कि- "प्रभु! मुझे तो भगवान की लीलाओं का किंचित भी ज्ञान नहीं।" ऐसा सुनकर वल्लभाचार्य ने सूरदास को अपने संप्रदाय में स्वीकारते हुए पुष्टिमार्ग में दीक्षित करने का निश्चय किया। उन्होंने सूरदास को श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध की बनाई हुई अपनी अनुक्रमणिका सुनाई, जिसके पश्चात् सूरदास ने विनय के पदों का गान छोड़कर पुष्टिमार्गी परिपाटी के अनुसार ईश्वर की भक्ति का वर्णन करना आरंभ कर दिया। भक्ति भावना के प्रथम चरण में सूरदास ‘ईश्वर-भक्ति’ को इस संसार में व्याप्त भय एवं ताप से बाहर निकलने का एक मात्र रास्ता मानते हैं। उनका अनुराग ईश्वर के प्रति अप्रतिम है, इसलिए सांसारिकता के प्रति उन्होंने विराग भाव व्यक्त किया है। सांसारिक सुखों की निंदा करते हुए सूरदास ने सभी सांसारिक कार्यों, सुखों और अवस्थाओं को दोषपूर्ण माना है। उनका मानना था कि निष्पक्ष आंखों से देखने पर ही अपने भीतर की अच्छाईयां और बुराईयां दिखाई पड़ती हैं और खुद के प्रति बरती गयी यही इमानदारी भक्त के हृदय में दैन्य भाव को जगाती है। इसी कारण सूरदास के विनय वर्णित इन आरंभिक पदों में दैन्य भावों की प्रधानता है। ईश्वर के गुणों की अधिकता और उनके समक्ष अपनी लघुता का भाव उन्होंने सूरसागर के आरंभ में बार-बार प्रकट किया हैं। वे कहते हैं कि अगर उन्होंने ईश्वर-भक्ति नहीं की तो उनका इस संसार में जन्म लेना ही व्यर्थ है-

"सूरदास भगवंत भजन बिनु धरनी जननी बोझ कत मारी"

"सूरदास प्रभु तुम्हरे भजन बिनु जैसे सूकर स्वान-सियार"

सूरदास का भक्त हृदय इतिहास और पुराण के अनेक उद्धरणों के माध्यम से भक्तों पर ईश्वरी कृपा के महत्त्व का प्रतिपादन करता है। अहिल्या, गणिका, अजामिल, गज, द्रौपदी, प्रह्लादआदि उदाहरणों के माध्यम से सूरदास यह स्थापित करते हैं कि कैसे ईश्वर अपने भक्तों पर कृपा की बौछार बरसाते हैं। सूरदास का भक्त हृदय ऐसा स्मरण कर स्वयं को संतुष्ट करता है-

"गज गनिका गौतम तिय तारी। सूरदास सठ सरन तुम्हारी।"

सूरदास का मानना था कि ईश्वर अपने भक्तों पर असीम कृपा करते हैं। इसलिए उन्होंने ईश्वर को भक्ति वत्सल और हितकारी कहा है-

"ऐसे कान्ह भक्त हितकारी, प्रभु तेरो वचन भरोसौ सांचौ।"

अपनी दुर्दशा के वर्णन द्वारा सूरदास प्रभु शरण में जाने की इच्छा बार-बार व्यक्त करते हैं-

"अबकि राखि लेहु भगवाना"

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