Hindi, asked by Omhdesai, 3 months ago

4. भाषा को मानव की सांस्कृतिक चेतना की संवाहिका क्यों कहते हैं?​

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Answered by ghanshyamkoche786
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Explanation:

This feature of human language is called arbitrariness. For example, many cultures assign meanings to certain colors, but the meaning for

cultural issues for The New Republic, The Wall Street Journal, The Washington ... everyday basis, it becomes a real language, called a creole.flawlessly with no conscious effort. We do.

Communication and understanding between people, epochs and cultures. From the very beginning human beings have been involved in social contexts of different degrees of complexity and they remain so, because this is the setting for both their labour and leisure, even when they think of themselves as isolated. Endless invisible threads link them with the life of the socium. The whole essence of the human being, including his consciousness, is communicative by its very nature. And this ability defines the essence of consciousness and also its vehicles, the individual and society. People are constantly afloat in an atmosphere of communication. They are eager to say something to each other, to learn or teach, to show or prove, to agree or reject, to ask or order, console, implore, show affection, and so on. Communication arose and developed with the rise of man and the formation of society in the process of labour. From the very first communication was a part of labour activity and satisfied its needs. As time went on, it was transformed into a relatively independent need to share, to pour out one's soul, either in grief or joy, or for no particular reason, a need that recurred day after day and was of vital moral and psychological importance to the individual. Communication is such a vital factor of existence that without it our animal ancestors would never have become people; without the ability to communicate a child cannot learn about, absorb culture and become a socially developed person. The depression caused by loneliness also indicates the exceptional importance of communication for human beings. Not for nothing is solitary confinement of criminals considered to be one of the severest punishments by most peoples of the world. In a situation where he can communicate a person acquires and sharpens his intellect, but in the opposite case he may even lose his reason.

Answered by varadbhoj
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Answer:सांस्कृतिक भाषा के दो अर्थ हो सकते हैं-

Answer:सांस्कृतिक भाषा के दो अर्थ हो सकते हैं-(1) संस्कार की गई भाषा अर्थात् परिष्कृत भाषा और

Answer:सांस्कृतिक भाषा के दो अर्थ हो सकते हैं-(1) संस्कार की गई भाषा अर्थात् परिष्कृत भाषा और(2) संस्कृति विशेष के व्यापक तत्वों को समाहित करने वाली भाषा।

Answer:सांस्कृतिक भाषा के दो अर्थ हो सकते हैं-(1) संस्कार की गई भाषा अर्थात् परिष्कृत भाषा और(2) संस्कृति विशेष के व्यापक तत्वों को समाहित करने वाली भाषा।प्रस्तुत संदर्भ में सांस्कृतिक भाषा का दूसरा अर्थ ग्रहण किया जा रहा हे। विगत सौ वर्षों में, मुख्यतः स्वातंयोत्तर काल में हिन्दी भाषा का एकाधिक दृष्टियों से विकास हुआ है। राष्ट्रभाषा के रूप में तो इसके विकास से सभी परिचित है। किंतु विशेष प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होने के कारण आज ‘राजभाषा हिन्दी’, ‘कामकाजी हिन्दी’, तकनीकी हिन्दी जैसे अनेक शब्द चल पड़े है जो उसके निरंतर विकासमान स्वरूप के परिचायक हैं। हिन्दी के ये सभी रूप उसके मानक रूप के आधार पर निर्मित हुए हैं जिनसे भाषा की आंतरिक संरचना भी प्रभावित हुई है।

Answer:सांस्कृतिक भाषा के दो अर्थ हो सकते हैं-(1) संस्कार की गई भाषा अर्थात् परिष्कृत भाषा और(2) संस्कृति विशेष के व्यापक तत्वों को समाहित करने वाली भाषा।प्रस्तुत संदर्भ में सांस्कृतिक भाषा का दूसरा अर्थ ग्रहण किया जा रहा हे। विगत सौ वर्षों में, मुख्यतः स्वातंयोत्तर काल में हिन्दी भाषा का एकाधिक दृष्टियों से विकास हुआ है। राष्ट्रभाषा के रूप में तो इसके विकास से सभी परिचित है। किंतु विशेष प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होने के कारण आज ‘राजभाषा हिन्दी’, ‘कामकाजी हिन्दी’, तकनीकी हिन्दी जैसे अनेक शब्द चल पड़े है जो उसके निरंतर विकासमान स्वरूप के परिचायक हैं। हिन्दी के ये सभी रूप उसके मानक रूप के आधार पर निर्मित हुए हैं जिनसे भाषा की आंतरिक संरचना भी प्रभावित हुई है। देखना यह है कि सांस्कृतिक प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए हिन्दी का किस प्रकार प्रयोग हुआ है और इन प्रयोगों ने उसकी संरचना को कहाँ तक प्रभावित किया है।

Answer:सांस्कृतिक भाषा के दो अर्थ हो सकते हैं-(1) संस्कार की गई भाषा अर्थात् परिष्कृत भाषा और(2) संस्कृति विशेष के व्यापक तत्वों को समाहित करने वाली भाषा।प्रस्तुत संदर्भ में सांस्कृतिक भाषा का दूसरा अर्थ ग्रहण किया जा रहा हे। विगत सौ वर्षों में, मुख्यतः स्वातंयोत्तर काल में हिन्दी भाषा का एकाधिक दृष्टियों से विकास हुआ है। राष्ट्रभाषा के रूप में तो इसके विकास से सभी परिचित है। किंतु विशेष प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होने के कारण आज ‘राजभाषा हिन्दी’, ‘कामकाजी हिन्दी’, तकनीकी हिन्दी जैसे अनेक शब्द चल पड़े है जो उसके निरंतर विकासमान स्वरूप के परिचायक हैं। हिन्दी के ये सभी रूप उसके मानक रूप के आधार पर निर्मित हुए हैं जिनसे भाषा की आंतरिक संरचना भी प्रभावित हुई है। देखना यह है कि सांस्कृतिक प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए हिन्दी का किस प्रकार प्रयोग हुआ है और इन प्रयोगों ने उसकी संरचना को कहाँ तक प्रभावित किया है। भारतीय संस्कृति के एकाधिक तत्वों को आत्मसात करने की प्रवृत्ति हिन्दी में प्राचीन काल से ही लक्षित होने लगती है। इसी गुण के कारण मध्ययुगीन साधु संतों से उसे सार्वदेशिक रूप प्रदान किया था। ब्रजभाषा गुजरात से लेकर असम तक भारतीय संस्कृति की संवाहिका बनी थी और अवधी कोसल जनपद को लाँघकर छत्तीसगढ़ तक फैल गई थी। आधुनिक काल में खड़ी बोली की प्रतिष्ठा होने पर इसने भी सार्वजनिक होने का प्रयास किया और यह अखिल भारतीय राजकाज की भाषा बन गई। इस समय यह ‘नागर संस्कृति’ के साथ साथ 'लोक संस्कृति’ को भी उजागर करती है। आधुनिक हिन्दी लेखन द्वारा खड़ी बोली हिन्दी के इस सांस्कृतिक स्वरूप का जो निखार और परिष्कार हुआ है, उसी का यहाँ पर्यवेक्षण किया जा रहा है।

Answer:सांस्कृतिक भाषा के दो अर्थ हो सकते हैं-(1) संस्कार की गई भाषा अर्थात् परिष्कृत भाषा और(2) संस्कृति विशेष के व्यापक तत्वों को समाहित करने वाली भाषा।प्रस्तुत संदर्भ में सांस्कृतिक भाषा का दूसरा अर्थ ग्रहण किया जा रहा हे। विगत सौ वर्षों में, मुख्यतः स्वातंयोत्तर काल में हिन्दी भाषा का एकाधिक दृष्टियों से विकास हुआ है। राष्ट्रभाषा के रूप में तो इसके विकास से सभी परिचित है। किंतु विशेष प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होने के कारण आज ‘राजभाषा हिन्दी’, ‘कामकाजी हिन्दी’, तकनीकी हिन्दी जैसे अनेक शब्द चल पड़े है जो उसके निरंतर विकासमान स्वरूप के परिचायक हैं। हिन्दी के ये सभी रूप उसके मानक रूप के आधार पर निर्मित हुए हैं जिनसे भाषा की आंतरिक संरचना भी प्रभावित हुई है। देखना यह है कि सांस्कृतिक प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए हिन्दी का किस प्रकार प्रयोग हुआ है और इन प्रयोगों ने उसकी संरचना को कहाँ तक प्रभावित किया है। भारतीय संस्कृति के एकाधिक तत्वों को आत्मसात करने की प्रवृत्ति हिन्दी में प्राचीन काल से ही लक्षित होने लगती है। इसी गुण के कारण मध्ययुगीन साधु संतों से उसे सार्वदेशिक रूप प्रदान किया था। ब्रजभाषा गुजरात से लेकर असम तक भारतीय संस्कृति की संवाहिका बनी थी और अवधी कोसल जनपद को लाँघकर छत्तीसगढ़ तक फैल गई थी। आधुनिक काल में खड़ी बोली की प्रतिष्ठा होने पर इसने भी सार्वजनिक होने का प्रयास किया और यह अखिल भारतीय राजकाज की भाषा बन गई। इस समय यह ‘नागर संस्कृति’ के साथ साथ 'लोक संस्कृति’ को भी उजागर करती है। आधुनिक हिन्दी लेखन द्वारा खड़ी बोली हिन्दी के इस सांस्कृतिक स्वरूप का जो निखार और परिष्कार हुआ है, उसी का यहाँ पर्यवेक्षण किया जा रहा है।

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