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काननि दै अंगुरी रहिबो जबहीं मुरली धुनि मंद बजै है।
मोहनी तानन सों रसखानि अटा चढ़ि गोधन गैहै तौ गैहै।।
टेरि कहाँ सिगरे ब्रजलोगनि काल्हि कोऊ कितनो समुझै है।
माइ री वा मुख की मुसकानि सम्हारी न जैहै, न जैहै, न जैहै।
नामवैय से लिया गया
इस
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चौथे छंद में कृष्ण की मुरली की धुन और उनकी मुस्कान के अचूक प्रभाव तथा उसके सामने गोपियों की विवशता का उल्लेख है। गोपियाँ कहती हैं कि जैसे ही मुरली की मंद ध्वनि उनके कानों में पड़ेगी वे अपने कानों को अंगुलियों से बंद कर लेंगी। उसकी मोहिनी तन सुनकर वे अट्टालिकाओं पर चढ़ जायेंगी चाहे उनके गोधन को कोई भी हानि क्यों न पहुँचे अथवा समस्त ब्रज के लोग चाहें उन्हें कितना भी क्यों न समझाएँ या बुलाएँ वे किसी की भी नहीं सुनेंगी । गोपियाँ कहती हैं कि बांसुरी बजाते हुए कृष्ण जी के मुख पर जो मुस्कान आती है वह उनसे संभाली नहीं जाती अर्थात उसके सामने वे अपनी सुध-बुध खो देती हैं ।
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