900 से 1200 साल के दौरान किस प्रकार इस्लाम की तरफ धर्मातरण में गति आई?
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भारत में इस्लाम को फैलनाः परंपरागत सिद्धांत
भारत में इस्लाम के विकास की व्याख्या करने वाले सिद्धांत चार तरह के तर्कों में विभाजित किए जा सकते हैं, हालांकि इनमें से कोई भी अपने आप में पूर्ण नहीं है।
1. प्रवासी सिद्धांतः
प्रथमतः जिसे मैं ‘प्रवासी सिद्धांत’ कहूंगा। वास्तव में यह धर्मातरण का सिद्धांत नहीं है क्योंकि इस मत ने इस्लामीकरण को वैचारिक प्रसरण का नहीं बल्कि इस्लाम के मानने वालों का फैलाव समझा है। इस मत के अनुसार भारतीय मुस्लिमों का अधिकांश हिस्सा उन मुस्लिमों का वंशज है जो या तो ईरानी पठार से भू-मार्ग द्वारा आए या अरब सागर के जलीय मार्ग से। यद्यपि इस तरह की कुछ प्रक्रिया ने ईरानी प्रायद्वीप और अरब सागर के समीपवर्ती क्षेत्रों के इस्लामीकरण में निस्संदेह योगदान दिया है परंतु जैसी कि आगे चर्चा करेंगे, इस तर्क का प्रयोग बंगाल में आम जनता के इस्लामीकरण की व्याख्या करने में नहीं किया जा सकता।
2. तलवार धर्मः
भारत में इस्लामीकरण की व्याख्या के सर्वाधिक पुराने सिद्धांत को मैं ‘तलवार धर्म' सिद्धांत कहना चाहूंगा। यह भारत के अलावा दूसरे देशों में भी इस्लाम के प्रसार में सैनिक शक्ति की भूमिका पर बल देता है। मध्यकालीन धर्मयुद्धों के समय से प्रचलित इस विचारधारा को 19वीं सदी में बड़ा समर्थन मिला जब मुसलमानों पर यूरोपीय साम्राज्यवादी प्रभाव अपनी चरम सीमा पर था। इसके बाद 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध में विश्वव्यापी इस्लामी सुधार आंदोलन के दौरान भी इसे काफी महत्व मिला। इसका सामान्य सुर 19वीं और 20वीं सदी के ओरिएंटलिस्टविद्वानों द्वारा सातवीं सदी में अरब में इस्लाम के उत्थान की व्याख्या के उत्तेजक सुर से मेल खाता है। उदाहरणार्थ सन् 1898 में सर विलियम म्यूर द्वारा लिखित पंक्तियों को देखें:
"युद्ध की खुशबू ने ही अरब कबीलों की सुप्त ऊर्जा को उत्सुक वफादारी में बदल दिया। योद्धाओं के बाद योद्धा, पलटन के बाद पलटन, पूरे-के-पूरे कबीलों की अंतहीन श्रृंखला, औरतों और बच्चों के साथ युद्ध के लिए निकल पड़ी। जीते गए शहरों, गणना से परे की लूट की रकम और हर व्यक्ति के लिए एक या दो कुंवारी युवतियों की उपलब्धता की रोचक और अनोखी कहानियां नये कबीलों के इसमें शामिल होने के कारण बने। छत्तों से निकली मधुमक्खियों या टिड्डों के उड़ान दल की तरह - ये कबीले बहुत बड़ी संख्या में पहले उत्तर की ओर, और वहां से पूर्व और पश्चिम की ओर फैल गए।''
वास्तव में यह कैसे होता है इस बात की सैद्धांतिक या व्यावहारिक संदर्भ में कभी भी संतोषप्रद व्याख्या नहीं की गई। बल्कि इस सिद्धांत को मानने वाले और आगे बढ़ाने वाले, इस्लामी धर्मातरण को उत्तरी भारत में 1200 से 1760 के बीच तुर्क-ईरानी शासन के विस्तार से उलझाते हुए दिखते हैं।
अगर इस्लामीकरण सैनिक या राजनैतिक बल से हुआ तो यह आशा की जाएगी कि वे सभी क्षेत्र जो मुस्लिम राजवंशों के प्रभाव क्षेत्र में सबसे लंबे समय तक रहे - अर्थात जो पूर्णतः ‘तलवार' के सामने थे - वहां आज मुसलमानों की संख्या ज्यादा होनी चाहिए। मगर मामला बिलकुल उल्टा है।
3. संरक्षण सिद्धांतः
भारत में इस्लामीकरण की व्याख्या करने हेतु सामान्य तौर पर विकसित तीसरे सिद्धांत को मैं ‘संरक्षण सिद्धांत' कहूंगा। इसमें ऐसा कहा जाता है कि मध्यकालीन भारतीयों ने शासक वर्ग से धर्मेतर लाभ मसलन, करों में छूट, शासन में पदोन्नति आदि प्राप्त करने हेतु इस्लाम स्वीकार कर लिया। यह सिद्धांत पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त धर्म निरपेक्ष समाज शास्त्रियों को हमेशा प्रिय रहा है और उनकी नज़र में कोई भी धर्म कुछ गैर धार्मिक कारकों पर निर्भर है, जिसके मूल में सामाजिक प्रतिष्ठा या अपना स्तर ऊंचा करने की इच्छा होती है।
भारतीय इतिहास के अनेक उदाहरण इस सिद्धांत का समर्थन करते हैं। 14वीं सदी के प्रारंभ में इब्न बतूता लिखता है कि भारतीय अपने आपको खलजी सुल्तानों के समक्ष नवदीक्षितों। (अभी-अभी धर्मान्तरित) के रूप में प्रस्तुत करते थे और सुल्तान उन्हें उनके स्तर अनुरूप सम्मान सूचक पोशाक से पुरस्कृत करते थे। 19वीं सदी की जनगणनाओं से यह पता चलता है कि उत्तरी भारत के अनेक ज़मींदारों ने भू-राजस्व की गैर अदायगी पर मिलने वाली कैद से बचने के लिए या पैतृक संपत्ति को परिवार में ही रख सकने के लिए, अपने आपको मुसलमान घोषित कर दिया था। इस सिद्धांत को उन समूहों पर भी लागू कर सकते हैं। जिन्हें मुस्लिम शासकों ने रोजगार दिया था तथा जिन्होंने बिना औपचारिक धर्मातरण के भी काफी कुछ इस्लामी संस्कृति को अपना लिया था।
यद्यपि यह मान्यता भारत के राजनैतिक केन्द्र में कम इस्लामीकरण की व्याख्या तो कर सकती है परंतु राजनैतिक सत्ता की सीमाओं के पास पंजाब और बंगाल में हुए बृहत स्तरीय धर्मातरण की व्याख्या नहीं कर सकती। ‘तलवार के प्रभाव' की तरह राजनैतिक संरक्षण का प्रभाव भी राजनैतिक मुख्यालय से दूरी बढ़ने पर, बढ़ने की जगह घटा ही होगा। असल में हमें एक ऐसे सिद्धांत की ज़रूरत है जो न केवल मुस्लिम सत्ता के केन्द्र तथा अभिजात्य वर्ग के बीच हुए इस्लामीकरण की व्याख्या करे बल्कि इससे दूर लाखों किसानों के बीच हुए व्यापक इस्लामीकरण को भी समझाए।
4. सामाजिक मुक्ति सिद्धांतः
इस जगह एक चौथा सिद्धांत उपयोग में आता है जिसे मैं ‘सामाजिक मुक्ति दिलाने वाले धर्म का सिद्धांत' कहूंगा। ब्रिटिश इतिहासकारों द्वारा रचित, पाकिस्तान और बांग्लादेशीय नागरिकों द्वारा ‘पुष्पित पल्लवित' तथा दक्षिण एशिया के अनगिनत पत्रकारों, विशेषतः मुस्लिमों, द्वारा समर्थित यह सिद्धांत काफी लंबे समय तक इस उपमहाद्वीप में इस्लामीकरण की सबसे स्वीकृत व्याख्या करता रहा है। इस सिद्धांत के अनुसार हिन्दू जाति व्यवस्था लंबे काल से परिवर्तनहीन तथा अपनी निम्न जातियों के प्रति भेदभावपूर्ण रही है।