अंग्रेजी शासन के कारण देश के कारीगर क्यों बेकार हो गए
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अंग्रेजी शासन के कारण देश के कारीगर बेकार हो गए
Explanation:
अंग्रेज सौदागरों ने आकर इस देश के उद्योग — धंधो को खासकर कपड़ा उद्योग को बुरी तरह से नष्ट किया , यह जग जाहिर है | भारत के बुनकरों ने , जिनके हाथ का बना कपड़ा , दुनिया में मशहूर था , इन सौदागरों के शोषण — उत्पीडन का संगठित मुकाबला करने का भरसक प्रयत्न किया | सन्यासी विद्रोह के दौरान इन कारीगरों के एक हिस्से ने फ़ौज से बर्खास्त सैनिको और किसानो के साथ मिलकर अंग्रेज सौदागरों का सशत्र मुकाबला किया था | इस सशत्र प्रतिरोध के अलावा उन्होंने संघर्ष के कई हथियार अपनाए |
सूबा बंगाल ( अर्थात आज का प. बंगाल बंगलादेश , बिहार , ओड़िसा ) की जमीन पर पैर रखते ही अंग्रेज सौदागरों ने खासकर यहा के सूती और रेशमी कपडे के कारीगरों को लूटना आरम्भ किया | वह लघु उद्योगों का जमाना था , आजकल की तरह बड़े — बड़े कारखाने उस वक्त न थे | शोषण तो देशी सौदागर भी करते थे , पर वे उद्योग को ज़िंदा रखते थे |
इन कारीगरों को मनमाने ढंग से लुटने के लिए अंग्रेज सौदागर उन्हें बंगाल के विभिन्न हिस्सों से लाकर कलकत्ता के आसपास रखना चाहते थे | प्रलोभन यह दिया जाता था की कम्पनी ब्रगियो ( मराठो ) और अन्य आक्रमणकारियों से उनकी रक्षा करेगी |ब्रगियो के आक्रमण के वक्त बहुत से धनी लोग अंग्रेजो का संरक्षण स्वीकार कर कलकत्ता में आ बसे | लेकिन इन कारीगरों ने उस वक्त भी यह संरक्षण स्वीकार नही किए | वे उत्तर बंगाल चले गये और वहा अपनी बस्तिया स्थापित की | स्वंय ब्रिटिश सौदागर विलियम बोल्ट्स ने अपनी रचना ” भारत के मामलो पर विचार ” में उल्लेख्य किया है की अंग्रेज सौदागरों के शोषण — उत्पीडन के कारण मालदह के जंगलबाड़ी अंचल के 700 जुलाहे परिवार बस्ती छोडकर चले गये और अन्त्य्र जाकर बस्ती स्थापित की |18 वी शदी के अंतिम भाग में पूर्व भारत के जिन केन्द्रों से ईस्ट इंडिया कम्पनी सूती कपडे इस देश से ले जाती थी , वे थे ढाका मालदा और बादउल , लक्ष्मीपुर , खिर्पाई, मेदनीपुर , शांतिपुर , और बूडन, हरीयाल . हरिपाल ,कटोरा . सोनामुखी ,मंडलघाट , चटगाँव , रंगपुर , कुमारखाली , कासिमबाजार , गोलाघर , बराहनगर , चन्दननगर , पटना और बनारस | इन केन्द्रों में बनने वाले विभिन्न प्रकार के सूती वस्त्र थे , मलमल , आबरू आलाबेली ,नयनसुख बदनख़ास , शरबती ,सरकारअली , जामदानी , हमाम , सरबन्द , डोरिया , ख़ास बापता , सानो ,गाढा , अमरिती, छित , झुना , रंग जंगलख़ास आदि | उस वक्त दक्षिण भारत में भी वस्त्र उद्योग बड़ी उन्नति पर था | जब अंग्रेजो ने कब्जा किया उस वक्त दक्षिण भारत में सूती कपडे में लगे बुनकरों की संख्या लगभग पांच लाख और बंगाल — बिहार — ओड़िसा में दस लाख से ज्यादा थी |
सोनामुखी में ईस्ट इंडिया कम्पनी भारतीय जुलाहों को सबसे अच्छे गाढे के थान कीकीमत 3 रूपये 9 आने देती थी , लेकिन लन्दन में उसी को साधे पैतालीस शिलिंग अर्थात 22 रुप्ये 12 आने में बेचती थी ( उस वक्र 2 शिलिंग == 1 रुपया था )अगर जुलाहों को किसी अन्य प्यारी के हाथ बेचना की इजाजत होती तो वे कम से कम 7 रूपये पाते ही | उठाईगीर अंग्रेज सौदागर भारतीय कारीगरों को बाजार की आधी कीमत देकर ही उन्हें अपने लिए कपड़ा बनाने को मजबूर करते थे | साथ ही कड़ी शर्त यह भी थी की वे किसी दूसरे के हाथ कपड़ा नही बेच सकते थे |
जो भारत पहले सारी दुनिया को वस्त्र देता था , वह क्रमश: ब्रिटेन के और फिर दुसरो के वस्त्र का बाजार बन गया | ब्रिटिश साम्राज्यी द्वारा खासकर 1810 के बाद शुरू की गयी यह रणनीति तबसे आज तक चलती आ रही है | राष्ट्र के आत्मनिर्भर उत्पादन को तोडकर उसे साम्राज्यी देशो पर निर्भर बनाने की प्रक्रिया निरन्तर चलती जा रही है | इसके फलस्वरूप बुनकरों के समेत विभिन्न कामो पेशो में स्थाई रूप से और पुश्त — दर पुश्त से लगे जनसाधारण के जीविका के साधन टूटते जा रहे है | उनकी बड़ी संख्या अब गरीबी , बेकारी आदि की शिकार होती जा रही है , आत्म हत्याए तक करने के लिए बाध्य होती जा रही है | देश का वर्तमान दौर इसका साक्षी है |