Hindi, asked by ag4914646, 4 months ago

अंग्रेजी शासन के पहले भारतीय भूमि व्यवस्था एवं लगान प्रणाली के विषय में आप​

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Answered by sharvankumar010219
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अंग्रेजों द्वारा स्थापित भूमि-कर व्यवस्थाएं

गौतम पांडेय

जमींदारी, रैयतवारी व महलवारी व्यवस्थाएं काफी जाने-पहचाने शब्द हैं हमारे लिए। ये भूमि-कर निर्धारण की अलग-अलग व्यवस्थाएँ थीं जो अंग्रेजों द्वारा भारत में अपने साम्राज्य निर्माण की दिशा में उठाए गए सबसे महत्वपूर्ण व शुरुआती कदम थे। मगर ये व्यवस्थाएँ केवल भूमि-कर निर्धारण या संग्रहण से संबंधित ही नहीं थीं, इन व्यवस्थाओं ने भविष्य में, भारत में, अंग्रेजी साम्राज्य की न केवल रूप रेखा तय की थी बल्कि उसे स्थायित्व प्रदान करने में भी मदद की थी।

भारतीय इतिहास के किसी भी विद्यार्थी के लिए इन व्यवस्थाओं की समझ बनाना निहायत ही आवश्यक होता है क्योंकि इन व्यवस्थाओं के निर्धारण के बाद से ले कर आज तक के भारतीय आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक इतिहास पर इन व्यवस्थाओं का सीधा प्रभाव देखा जा सकता है।

आमतौर पर स्कूली पाठ्यपुस्तकों में इस मुद्दे को भी अन्य दूसरे मुद्दों की तरह काफी शार्ट कंट में निपटा दिया जाता है - विद्यार्थियों में इसकी समझ बनाने की कोई कोशिश नहीं की जाती। कारण व संबंध स्थापित करने की ऐसी किसी प्रक्रिया के अभाव के कारण ही शायद विद्यार्थी इतिहास को इतना बोरियत भरा मानने लग जाते हैं।

प्रस्तुत लेख, अंग्रेजों द्वारा स्थापित भूमि-कर निर्धारण की विभिन्न व्यवस्थाओं का न केवल विस्तार से वर्णन करता है बल्कि उन कारणों व ज़रुरतों को भी परखने की कोशिश करता है जिनकी वजह से अंग्रेज़ साहबों ने इन व्यवस्थाओं का निर्माण किया था। इसके अतिरिक्त इन व्यवस्थाओं का तत्कालीन और भविष्य के भारतीय समाज पर क्या प्रभाव पड़ा - उन्हें भी जांचने की कोशिश की गई है।

यह हम सभी जानते हैं कि भारत में अंग्रेज़ दूसरे यूरोपीय देशों के लोगों की तरह व्यापार करने आए थे। उनका उद्देश्य भारत के स्थानीय व निर्यात व्यापार, पर एकाधिकार स्थापित कर अधिक-से-अधिक लाभ कमाना था। उस वक्त इस काम में उन्हें अन्य यूरोपीय देशों (पुर्तगाल, हॉलैंड, फ्रांस) के व्यापारियों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती थी। इस प्रतिस्पर्धा को एकाधिकार में बदलने की प्रक्रिया में इन व्यापारियों (ईस्ट इंडिया कंपनियों) ने स्थानीय शासकों से संबंध बढ़ाना शुरू किया जिससे कि उन्हें उनके क्षेत्रों में व्यापार पर करों में छूट तथा कुछ हद तक एकाधिकार मिल सके। इस संबंध बनाने की प्रक्रिया में इन कंपनियों ने स्थानीय शासकों की न केवल आर्थिक मदद की बल्कि उनको समय-समय पर सैनिक सहायता भी प्रदान की। आपसी प्रतिस्पर्धा की इस प्रक्रिया में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने दूसरे देशों की कंपनियों को काफी पीछे छोड़ दिया। साथ ही स्थानीय शासकों के साथ काम करते हुए ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने उनकी कमजोरियों को भी अच्छी तरह भांप लिया तथा उसका भरपूर फायदा अपनी व्यापारिक गतिविधियों के लिए उठाया। मगर कई बार स्थानीय शासक इतने कमजोर नहीं होते थे कि अंग्रेज़ उन्हें आसानी से अपने काबू में ले सकें। तो ऐसी स्थिति में ये कंपनियां उनसे युद्ध पर उतर आती थीं।

ऐसी ही स्थिति सन 1757 में बंगाल में आई जब वहां के नवाब सिराजुद्दौला ने अंग्रेजों की इच्छाओं के आगे झुकने से इंकार कर दिया। मगर इसके परिणामस्वरूप जो युद्ध पलासी में हुआ उसमें वह बुरी तरह हार गया और बंगाल पर अंग्रेजों का दबदबा पूरी तरह से कायम हो गया। मगर उन्होंने पूरे बंगाल को अपने कब्जे में नहीं लिया, उनका उद्देश्य तो व्यापार करना था। इसके पश्चात सन् 1764 में बक्सर की लड़ाई हुई जिसमें अंग्रेजों ने बंगाल के नवाब मीर कासिम, अवध के नवाब शुजाउद्दौला व मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय की मिली-जुली सेना को पराजित किया। अपनी इस विजय के पश्चात अन्य फायदों के अतिरिक्त अंग्रेजों ने मुगल बादशाह से बंगाल, बिहार व उड़ीसा की दीवानी अर्थात भूमि-कर वसूलने का अधिकार हासिल कर लिया। पर उस वक्त भी उन्होंने उस क्षेत्र की सामान्य शासन व्यवस्था अपने हाथों में नहीं ली। वह तो अभी भी बंगाल के कठपुतली नवाब मीर जाफर की जिम्मेदारी थी। लेकिन व्यापार करने आए लोगों को लगान वसूली अपने हाथ में लेने की क्या ज़रुरत थी?

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