A
प्रश्नः ४. मञ्जूषायाम् प्रदेशः पदैः वाच्यपरिवर्तनम् कृत्वा अधोलिखितं संवादं पुनः लिखत।
गणेशः - सुरेश:! किम् त्वम् रामाणं पठसि?
सुरेशः - आम् (१)..... रामायणं पठ्यते।
गणेश: - किम् त्वम् श्लोकान् स्मरसि?
सुरेशः - आम् मया (२) अपि स्पर्यन्ते।
गणेशः - किम् कक्षायां आचार्य: कथाम् पाठयति?
सुरेशः - आम् कक्षायां आचार्येण कथा (३).
पाठ्यते,
मया,
श्लोकाः
Answers
Answer:
परिभाषा तथा भेद
संस्कृत वाक्य में क्रिया द्वारा जो कहा जाता है, वही क्रिया का वाच्य होता है। संस्कृत भाषा में तीन वाच्य होते हैं(1) कर्तृवाच्य (2) कर्मवाच्य (3) भाववाच्य।
1. कर्तृवाच्य
कर्तवाच्य में क्रिया द्वारा प्रधान रूप से कर्ता वाच्य होता है तथा कर्ता और क्रिया का पुरुष और वचन समान होते हैं। अकर्मक तथा सकर्मक सभी धातुओं के दसों गणों में, दसों लकारों के रूप कर्तृवाच्य में होते हैं। अकर्मक क्रिया के होने पर कर्ता में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे-रामः हसति (अकर्मक), रामः पुस्तकं पठति (सकर्मक), छात्रा हसन्ति (बहुवचन), यूयं ग्रामं गच्छथ (मध्यम पुरुष, बहुवचन), आवाम् याचावः (उत्तम पुरुष, द्विवचन), बालिका लज्जते (प्रथम पुरुष, एकवचन) इत्यादि वाक्यों में प्रयुक्त क्रियाओं के पुरुष और वचन कर्ता के अनुसार हैं। कर्ता में सब जगह प्रथमा विभक्ति तथा कर्म में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग हुआ है। अतः इन क्रियाओं को कर्तृवाच्य की क्रिया कहते हैं।
2. कर्मवाच्य
कर्मवाच्य में क्रिया द्वारा प्रधान रूप से कर्म ही वाच्य होता है। यहाँ वाक्य में कर्म में प्रथमा विभक्ति का प्रयोग होता है, कर्ता में तृतीया विभक्ति होती है तथा क्रिया का पुरुष और वचन कर्म के अनुसार होता है। यह वाच्य केवल सकर्मक धातुओं का ही होता है। जैसे-बालकेन पुस्तकं पठ्यते, छात्रेण वृक्षाः दृश्यन्ते, युष्माभिः वयं ताड्यामहे, पशुना पक्षिणौ दृश्येते इत्यादि वाक्यों में बालकेन, छात्रेण, युष्माभिः तथा पशुना आदि कर्ताओं में तृतीया विभक्ति है। पुस्तकं, वृक्षाः, वयं, पक्षिणौ आदि कर्म में प्रथमा विभक्ति है तथा इन्हीं के अनुसार पठ्यते, दृश्यन्ते, ताड्यामहे तथा दृष्येते आदि क्रियाओं में पुरुष और वचन का प्रयोग हुआ है। कर्मवाच्य की क्रियाओं में क्रिया का रूप आत्मनेपद में चलता है। लट्, लोट्, लङ् और विधिलिङ् में धातु के बाद ‘य’ लग जाता है तथा शेष लकारों में बिना ‘य’ के रूप चलता है।
3. भाववाच्य
जब अकर्मक क्रियाओं वाले वाक्य में कर्ता की प्रधानता न होकर भाव (क्रिया) की प्रधानता होती है तो वह भाववाच्य कहलाता है। यहाँ कर्ता में तृतीया विभक्ति होती है। भाववाच्य में क्रिया में सदा प्रथम पुरुष एकवचन का रूप रहता है। क्रिया में शेष परिवर्तन वैसे ही होते हैं, जैसे कर्मवाच्य की क्रिया में होते हैं अर्थात् लट्, लोट्, लङ् और विधिलिङ् में ‘य’ लगता है तथा सभी लकारों में आत्मनेपद में रूप चलता है। जैसे-छात्रेण हस्यते, तेन भूयते, मया भूयते, त्वया भूयते इत्यादि में कर्ता में तृतीया विभक्ति है तथा क्रिया में आत्मनेपद का प्रथम पुरुष, एकवचन का ‘य’ के साथ बना हुआ रूप है।
कर्मवाच्य या भाववाच्य में धातु-रूप के नियम –
जिन धातुओं के अंत में दीर्घ ‘आ’ होता है (जैसे-दा, धा, पा, स्था, मा आदि) तथा गै, दे, धे आदि धातुओं के अंतिम स्वर के स्थान पर दीर्घ ई हो जाता है। जैसे-दीयते, धीयते, पीयते, स्थीयते, मीयते, गीयते इत्यादि।
ऋकारान्त धातुओं (मृ, ह, कृ, भृ, धृ, वृ, दृ आदि) के अंतिम ऋकार को ‘य’ परे होने पर ‘रि’ आदेश हो जाता है; जैसे – म्रियते, ह्रियते, क्रियते, भ्रियते, ध्रियते, वियते, द्रियते आदि।
जिन धातुओं के अंत में हस्व इ तथा उ होते हैं, ‘य’ परे होने पर उनके ह्रस्व इकार तथा उकार के स्थान पर दीर्घ स्वर (ई तथा ऊ) हो जाता है। जैसे-जि से जीयते, चि से चीयते, स्तु से स्तूयते, श्रु से श्रूयते, द्वे से हूयते, सु से सूयते इत्यादि।
√वद्, √वच्, √वस्, √वप् तथा वह स्वप् आदि धातुओं के व को उ सम्प्रसारण हो जाता है। यथा – उद्यते, उच्यते, उष्यते, उह्यते, उष्यते, सुप्यते आदि।
√यज्, √व्यध् आदि धातुओं के ‘य’ का सम्प्रसारण (इ) होकर इज्यते, विध्यते आदि रूप बनते हैं।
प्रच्छ्, √ग्रह आदि धातुओं के र् को सम्प्रसारण (ऋ) होने पर पृच्छ्यते, गृह्यते आदि रूप बनते हैं।
धातु के उपधा के अनुनासिक का लोप हो जाता है। जैसे – भञ् से भज्यते, रञ् से रज्यते, गिन्थ् से ग्रथ्यते, स्तम्भ से स्तभ्यते।
√खन्, √जन् और √तन् धातुओं के ‘न’ को विकल्प से आ हो जाता है। जैसे – जन् से जायते; तन् से तायते, तन्यते; खन् से खायते, खन्यते।
लृट् लकार में कर्तृवाच्य के समान रूप बनते हैं, केवल प्रत्यय आत्मनेपद के लगाए जाते हैं, जैसे – भविष्यते, पठिष्यते आदि।
विशेष – कर्मवाच्य तथा भाववाच्य के क्रिया रूपों में गणों के विकरण का प्रयोग नहीं होता।
कर्तृवाच्य से कर्मवाच्य
कर्तृवाच्य से कर्मवाच्य बनाते समय निम्न परिवर्तन किए जाते हैं –
कर्तृवाच्य के कर्ता की प्रथमा विभक्ति के स्थान पर कर्मवाच्य में तृतीया विभक्ति हो जाती है।
कर्तृवाच्य के कर्म को द्वितीया विभक्ति के स्थान पर कर्मवाच्य में प्रथमा विभक्ति हो जाती है।
कर्मवाच्य में क्रिया का पुरुष और वचन कर्म के पुरुष और वचन के अनुसार हो जाता है।
कर्तृवाच्य में क्तवतु (तवत्) प्रत्यय के स्थान पर कर्मवाच्य में क्त (त) प्रत्यय हो जाता है।
कर्मवाच्य से कर्तृवाच्य कर्मवाच्य से कर्तृवाच्य करते समय उपर्युक्त नियम बदल जाते हैं। जैसे –
कर्मवाच्य में कर्ता के स्थान पर आई हुई तृतीया विभक्ति कर्तृवाच्य में प्रथमा विभक्ति हो जाती है।
कर्मवाच्य में कर्म के स्थान पर प्रयुक्त प्रथमा विभक्ति कर्तृवाच्य में द्वितीया विभक्ति हो जाती है।
क्रिया के पुरुष और वचन कर्ता के अनुसार हो जाते हैं।
कर्मवाच्य में प्रयुक्त क्त (त) के स्थान पर कर्तृवाच्य में क्तवतु (तवत्) प्रत्यय हो जाती है।
कर्मवाच्य में प्रयुक्त ‘तव्य’ प्रत्यय के स्थान पर कर्तृवाच्य में विधिलिङ् का प्रयोग कर दिया जाता है।
उदाहरण – कर्तृवाच्य से कर्मवाच्य कर्तृवाच्य कर्मवाच्य कर्तृवाच्य