अंधे भिखारी के लिए लज्जा की बात क्या होती है और क्यों होती है
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जगधर के मन में ईर्ष्या का अंकुर जमा। वह भैरो के घर से लौटा, तो देखा कि सूरदास राख को बटोरकर उसे आटे की भाँति गूंध रहा है। सारा शरीर भस्म से ढका हुआ है और पसीने की धार निकल रही हैं। बोला-"सूरे, क्या ढूँढते हो?"
सूरदास-"कुछ नहीं। यहाँ रखा ही क्या था! यही लोटा-तवा देख रहा था।"
जगधर-“और वह थैली किसकी है, जो भैरो के पास है?"
सूरदास चौंका। क्या इसीलिए भैरो आया था? जरूर यही बात है। घर में आग लगाने के पहले रुपये निकाल लिये होंगे।
लेकिन अंधे भिखारी के लिए दरिद्रता इतनी लज्जा की बात नहीं है, जितना धन। सरदास जगधर से अपनी आर्थिक हानि को गुप्त रखना चाहता था। वह गया करना चाहता था, मिठुआ का ब्याह करना चाहता था, कुआँ बनवाना चाहता था; किंतु इस ढंग से कि लोगों को आश्चर्य हो कि इसके पास रुपये कहाँ से आये, लोग यही समझें कि भगवान् दीन-जनों की सहायता करते हैं। भिखारियों के लिए धन-संचय पाप-संचय से कम अपमान की बात नहीं है। बोला -"मेरे पास थैली-वैली कहाँ। होगी किसी की। थैली होती, तो भीख माँगता?"
जगधर-“मुझसे उड़ते हो! भैरो मुझसे स्वयं कह रहा था कि झोपड़े में धरन के ऊपर यह थैली मिली। पाँच सौ रुपये से कुछ बेसी हैं।"
सूरदास -"वह तुमसे हँसी करता होगा। साढ़े पाँच रुपये तो कभी जुड़े ही नहीं, साढ़े पाँच सौ कहाँ से आते!"
इतने में सुभागी वहाँ आ पहुँची। रात-भर मंदिर के पिछवाड़े अमरूद के बाग में छिपी बैठी थी। वह जानती थी, आग भैरो ने लगाई है। भैरो ने उस पर जो कलंक लगाया था, उसकी उसे विशेष चिंता न थी; क्योंकि वह जानती थी, किसी को इस पर विश्वास न आयगा। लेकिन मेरे कारण सूरदास का यों सर्वनाश हो जाय, इसका उसे बड़ा दुःख था। वह इस समय उसको तस्कीन देने आई थी। जगधर को वहाँ खड़े देखा, तो झिझकी। भय हुआ, कहीं यह मुझे पकड़ न ले। जगधर को वह भैरो ही का दूसरा अवतार समझती थी। उसने प्रण कर लिया था कि अब भैरो के घर न जाऊँगी, अलग रहूँगी और मेहनत-मजूरी करके जीवन का निर्वाह करूँगी; यहाँ कौन लड़के रो रहे हैं, एक मरा ही पेट उसे भारी है न? अब अकेले ठोके और खाय, और बुढ़िया के चरण धो-धोकर पिये, मुझसे तो यह नहीं हो सकता। इतने दिन हुए, इसने कभी अपने मन से घेले का सेंदुर भी न दिया होगा, तो मैं क्यों उसके लिए मरूँ।