'अंधेर नगरी ' नाटक आज के समय में भी प्रासंगिक प्रतीत होता है । कथन के पक्ष अथवा विपक्ष मै सोदाहरण तर्क दीजिये
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पहले दृश्य में महंत अपने दो चेलों के साथ दिखाई पड़ते हैं जो अपने शिष्यों गोवर्धन दास और नारायण दास को पास के शहर में भिक्षा माँगने भेजते हैं। वे गोवर्धन दास को लोभ के बुरे परिणाम के प्रति सचेत करते हैं।
दूसरे दृश्य में शहर के बाजार का दृश्य है जहाँ सबकुछ टके सेर बिक रहा है। गोवर्धन दास बाजार की यह कफैयत देखकर आनन्दित होता है और सात पैसे में ढाई सेर मिठाई लेकर अपने गुरु के पास लौट जाता है।
तीसरे दृश्य में महंत के पास दोनों शिष्य लौटते हैं। नारायण दास कुछ नहीं लाता है जबकि गोबर्धन दास ढाई सेर मिठाई लेकर आता है। महंत शहर में गुणी और अवगुणी को एक ही भाव मिलने की खबर सुनकर सचेत हो जाते हैं और अपने शिष्यों को तुरंत ही शहर छोड़ने को कहते हैं। वे कहते हैं- "सेत सेत सब एक से, जहाँ कपूर कपास। ऐसे देश कुदेस में, कबहूँ न कीजै बास।।" नारायण दास उनकी बात मान लेता है जबकि गोवर्धन दास सस्ते स्वादिष्ट भोजन के लालच में वहीं रह जाने का फैसला करता है।
चौथे दृश्य में अंधेर नगरी के चौपट राजा के दरबार और न्याय का चित्रण है। शराब में डूबा राजा फरियादी के बकरी दबने की शिकायत पर बनिया से शुरु होकर कारीगर, चूनेवाले, भिश्ती, कसाई और गड़रिया से होते हुए कोतवाल तक जा पहुंचता है और उसे फांसी की सजा सुना देता है।
पाँचवें दृश्य में मिठाई खाते और प्रसन्न होते मोटे हो गए गोवर्धन दास को चार सिपाही पकड़कर फांसी देने के लिए ले जाते हैं। वे उसे बताते हैं कि बकरी मरी इसलिए न्याय की खातिर किसी को तो फाँसी पर जरूर चढ़ाया जाना चाहिए। जब दुबले कोतवाल के गले से फांसी का फँदा बड़ा निकला तो राजा ने किसी मोटे को फाँसी देने का हुक्म दे दिया।
छठे दृश्य में शमशान में गोवर्धन दास को फाँसी देने की तैयारी पूरी हो गयी है। तभी उसके गुरु महंत जी आकर उसके कान में कुछ मंत्र देते हैं। इसके बाद गुरु शिष्य दोनों फाँसी पर चढ़ने की उतावली दिखाते हैं। राजा यह सुनकर कि इस शुभ सइयत में फाँसी चढ़ने वाला सीधा बैकुंठ जाएगा स्वयं को ही फाँसी पर चढ़ाने की आज्ञा देता है। इस तरह अन्यायी और मूर्ख राजा स्वतः ही नष्ट हो जाता है।
Explanation:
उस समय भारतेन्दु कह रहे हैं कि सच बोलने वालों को सजा मिलती है और झूठे पदवी पाते हैं, छलियो की एकता के जोर के आगे कोई नहीं टिक पाता, अंदर से कलुषता से भरे लोग बाहर से चमकदार दिखते रहते हैं, कोशिश में रहते हैं दिखने की. धर्म और अधर्म सब एक हो गया है, न्याय वही जो राजा कहे, सुप्रीम कोर्ट भी कहे तो उसे चुनौती दी जाए. और ऐसे हालात में देश पहुंच जाए कि लगे ही ना कि शासक यहां रहता है. यहां यह जो पंक्ति है “अंधाधुंध मच्यो सब देसा मानहु राजा रहत बिदेसा” ये पँक्तियां भारतेंदु व्यंग्य में कह रहे हैं लेकिन उस समय का सच भी था कि भारत के शासन की कमान विदेशी शासकों के हाथ मे थी. लेकिन आज? ये पंक्तियां बहुत प्रासंगिक हैं क्योंकि राजा सच में विदेश में रहते हैं, या देश में ही उन्होंने अपना विदेश निर्मित कर लिया है क्योंकि देश के सुचारू संचालन में उनकी रूचि नहीं रह गई. स्थितियां कई बार ऐसी अनियंत्रित हुईं, हो रही है कि उपस्थिति का इकबाल भी समाप्तप्राय है. लोकतांत्रिक व्यवस्था के सारे इदारों में घमासान मचा हुआ है. दरबार में मुर्खों का जमावड़ा है, मुर्ख और जनविरोधी एक तरफ हो गए हैं और बुद्धिजीवियों को उन्होंने खिलाफ मान लिया है. राजा को पान देने वाले, किसी और की गुनाह की सजा किसी और को दिलाने वाले मंत्री भरे पड़े हैं. ‘अंधेर नगरी’ राजा के दरबार मे क्या होता है? फरियादी की बकरी की मौत का जिम्मेदार दीवार को तलब किये जाने से सिलसिला शुरू होता है और क्रमशः कल्लु बनिया, कारीगर, चुनेवाला, भिश्ती, कसाई से होते हुए सजा की सुई कोतवाल पर टिक जाती है जो कि शहर का ‘इंतजाम’ देखने निकले हैं, इस बदइंतजामी का जो इंतजाम करेगा वह तो गुनाहगार हैं ही. इस दृश्य को पढ़ते हुए जो बात ध्यान देने की है वह असंगत संवादों की योजना है जो राजा की मुर्खता को और गाढ़ा करने और हास्य की रचना के लिए है। दृश्य के अंत मे भारतेन्दु का रंग संकेत ऐसा दृश्य उपस्थित करता है जिसमें संवाद नहीं है लेकिन व्यंजकता तीक्ष्ण है... (लोग एक तरफ से कोतवाल को पकड़ कर ले जाते हैं, दूसरी ओर से मंत्री को पकड़ कर राजा जाते हैं) दृश्य के अन्त तक राजा अपने पैरों से नहीं चल पाता उसे सहारा चाहिए. आज के समय में भी शासक अपने पैरों पर नहीं बहुत से बाहरी शक्तियों के सहारों पर है, और राजा शक्ति के नशे में गाफिल हैं.
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