आचार्य रामचन्द्र शुक्ल अथवा असगर बजाहत का साहित्यिक परिचय, रचनाएँ एवं भाषा
शैली बताइए।
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जीवन परिचय
रामचन्द्र शुक्ल जी का जन्म बस्ती ज़िले के अगोना नामक गाँव में सन् 1884 ई. में हुआ था। सन् 1888 ई. में वे अपने पिता के साथ राठ हमीरपुर गये तथा वहीं पर विद्याध्ययन प्रारम्भ किया। सन् 1892 ई. में उनके पिता की नियुक्ति मिर्ज़ापुर में सदर क़ानूनगो के रूप में हो गई और वे पिता के साथ मिर्ज़ापुर आ गये।
शिक्षा
रामचन्द्र शुक्ल जी के पिता ने शिक्षा के क्षेत्र में इन पर उर्दू और अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए ज़ोर दिया तथा पिता की आँख बचाकर वे हिन्दी भी पढ़ते रहे। सन् 1901 ई. में उन्होंने मिशन स्कूल से स्कूल फ़ाइनल की परीक्षा उत्तीर्ण की तथा प्रयाग के कायस्थ पाठशाला इण्टर कॉलेज में एफ़.ए. (बारहवीं) पढ़ने के लिए आये। गणित में कमज़ोर होने के कारण उन्होंने शीघ्र ही उसे छोड़कर 'प्लीडरशिप' की परीक्षा उत्तीर्ण करनी चाही, उसमें भी वे असफल रहे। परन्तु इन परीक्षाओं की सफलता या असफलता से अलग वे बराबर साहित्य, मनोविज्ञान, इतिहास आदि के अध्ययन में लगे रहे। मिर्ज़ापुर के पण्डित केदारनाथ पाठक, बदरी नारायण चौधरी 'प्रेमघन' के सम्पर्क में आकर उनके अध्ययन-अध्यवसाय को और बल मिला। यहीं पर उन्होंने हिन्दी, उर्दू, संस्कृत एवं अंग्रेज़ी के साहित्य का गहन अनुशीलन प्रारम्भ कर दिया था, जिसका उपयोग वे आगे चल कर अपने लेखन में जमकर कर सके।
कार्यक्षेत्र
मिर्ज़ापुर के तत्कालीन कलक्टर ने रामचन्द्र शुक्ल को एक कार्यालय में नौकरी भी दे दी थी, पर हैड क्लर्क से उनके स्वाभिमानी स्वभाव की पटी नहीं। उसे उन्होंने छोड़ दिया। फिर कुछ दिनों तक रामचन्द्र शुक्ल मिर्ज़ापुर के मिशन स्कूल में चित्रकला के अध्यापक रहे। सन् 1909 से 1910 ई. के लगभग वे 'हिन्दी शब्द सागर' के सम्पादन में वैतनिक सहायक के रूप में काशी आ गये, यहीं पर काशी नागरी प्रचारिणी सभा के विभिन्न कार्यों को करते हुए उनकी प्रतिभा चमकी। 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' का सम्पादन भी उन्होंने कुछ दिनों तक किया था। कोश का कार्य समाप्त हो जाने के बाद शुक्ल जी की नियुक्ति काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी के अध्यापक के रूप में हो गई। वहाँ से एक महीने के लिए वे अलवर राज्य में भी नौकरी के लिये गए, पर रुचि का काम न होने से पुन: विश्वविद्यालय लौट आए। सन् 1937 ई. में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष नियुक्त हुए एवं इस पद पर रहते हुए ही सन् 1941 ई. में उनकी श्वास के दौरे में हृदय गति बन्द हो जाने से मृत्यु हो गई।