Hindi, asked by gaurigodara518, 16 days ago

आखिरी चट्टान तक रिपोर्ताज में परिवेश का जीवन्त निरुपण किस प्रकार किया गया है?सिद्ध कीजिए।
नतिनलिखित गद्यांश की सप्रसंग व्याख्या कीजिए।​

Answers

Answered by govindchoudhary29201
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Content Guidelinesआखिरी चट्टान तक रिपोर्ताज में परिवेश का जीवन्त निरुपण किस प्रकार किया गया है?सिद्ध कीजिए।

Explanation:

Answered by rawatgodara99
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ANSWER. आखिरी चट्टान तक' यात्रा वृतान्त में परिवेश का जीवन्त निरूपण किया गया है। यात्रा के दौरान उत्पन्न स्वाभाविक ‘अतिरिक्त भावुकता’ लिखते समय तटस्थता में परिवर्तित हुई और मोहन राकेश ने यात्रा का गत्यात्मक मूल्यांकन प्रस्तुत किया। पुस्तक पढ़ते समय अनुभव होता रहता है कि हम एक विलक्षण बुद्धिजीवी की बाह्य और अन्तर्यात्रा के सहपथिक हैं।

वांडर लस्ट  

खुला खु समुद्रमु-तट। दूर-दू दूर दू तक फैली रेत। रेत में से उभरी बड़ी-बड़ी स्याह चट्टानें। पीछे की तरफ़ एक टूटी-फूटी

सराय। ख़ामोश रात और एकटक उस विस्तार को ताकती एक लालटेन की मटियाली रोशनी...।

सब-कुछ ख़ामोश है। लहरों की आवाज़ के सिवा कोई आवाज़ सुना सु ई नहीं देती। मैं सराय के अहाते में बैठा बै

समुद्रमु के क्षितिज को देख रहा हूँ। लहरें जहाँ तक बढ़ आती हैं, वहाँ झाग से एक लकी र खिंच खिं जाती है। मेरे

सामने एक बुड्बुढा बैठा बै है। उसके चेहरे पर भी न जाने कितनी-कितनी लकीरें हैं। उसकी आँखों आँ में भी कोई चीज़

बार-बार उमड़ आती है और लौट जाती है। हम दोनों के बीच में एक लम्बी पुरा पु नी मेज़ है जो कुहनी का ज़रा-सा

बोझ पड़ते ही चरमरा उठती है। बुड्बुढे के सामने एक पुरा पु ना अख़बार फैला है। मेरे सामने चा य की प्याली रखी है।

सहसा वातावरण में एक खिलखिलाहट फूट पड़ती है। एक सोलह-सत्रह साल की लडक़ी पास की कोठरी से आकर

बुड्बुढे के गले में बाँहें डा ल देती है। बुड्बुढा उसकी तरफ़ ध्यान न देकर उसी तरह अख़बार की पुरा पु नी सुर्खिसु यों र्खि में

खोया रहता है। मैं चाय की प्याली उठाता हूँ और रख देता हूँ। लहरों का फेन आगे तक आकर रेत पर एक और

लकीर खींच जाता है...।

एक पहाड़ी मैदा मै न। धान और मक्की के खेतों से कुछ हटकर लकड़ी और फूस की एक झोंपड़ी। वातावरण में

ताज़ा कटी लकड़ी की गन्ध। ढलती धूप और धू झोंपड़ी की खिडक़ी से बाहर झाँकती साँझ...।

बेंत की टूटी कुर्सी पर बैठकर बै खिडक़ी से बाहर देखते हुए दूर दू तक वीरान पगडंडिडं याँनज़र आती हैं। उन पर

कहीं को ई एकाध ही व्यक्ति चलता दिखाई देता है। खिडक़ी के बाहर साँझ उतर आने पर झोंपड़ी में रात घिर

आती है। मैं खिडक़ी से हटकर अपने आसपास नज़र दौड़ाता हूँ। फ़र्श पर, मेज़ पर और चारपाई पर काग़ज़-ही-

काग़ज़ बिखरे हैं जिन्हें देखकर मन उदास हो जाता है। अपना-आप बहुत अकेला और भारी महसूस सू होता है।

लकड़ी की गन्ध से ऊब होने लगती है। साथ की झोंपड़ी से आती धुएँधु एँकी गन्ध अच्छी लगती है। मैं फिर खिडक़ी

के पास जा खड़ा होता हूँ। पगडंडिडं याँअब बिल्कुल सुनसु सान हैं और धीरे-धीरे अँधेअँ धेरे में डूबती जा रही हैं। एक पक्षी

पंख फडफ़ड़ाता खिडक़ी के पास से निकल जाता है...।

कच्चे रास्ते की ढलान। एक मोड़ पर अचानक क़दम रुक जाते हैं। नीचे, बहुत नीचे, दरि या की घाटी है।

ज़हरमोहरा रंग का पानी सारस के पंखों की तरह एक द्वीप के दोनों ओर शाखाएँ फैलाये है। सारस की गर्दन दूरदू

चीड़ के वृक्षों वृ में जाकर खो गयी है...।

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ढलान से घाटी की तरफ़ झुके एक पेड़ के नीचे से दो आँखेंआँ खें सहसा मेरी तरफ़ देखती हैं। उन आँखों आँ में सारस

का विस्मय है और दरिया की उमंग। साथ एक चमक है जो कि उनकी अपनी है।

''यह रास्ता कहाँजाता है?'' मैं पूछपू ता हूँ।

लडक़ी अपनी जगह से उठ खड़ी होती है। उसके शरीर में कहीं ख़म नहीं है। साँचे में ढले अंग-एक अं सीधी रेखा

और कुछ गोलाइयाँ। आँखों आँ में कोई झिझक या संकोच नहीं।

''तुम्तुहें कहाँजाना है?'' वह पूछपू ती है।

''यह रास्ता जहाँभी ले जाता हो...।''

वह हँस पड़ती है। उसकी हँसी में भी कोई गाँठ नहीं है। पेड़ इस तरह बाँहें हिलाता है, जैसेजै से पूरेपूरे वातावरण को

उनमें समेट लेना चाहता हो। एक पत्ता झडक़र चक्कर काटता नीचे उतर आता है।

''यह रास्ता हमारे गाँव को जाता है,'' लडक़ी कहती है। सूर्या सू स्त के कई-कई रंग उसके हँसिये में चमक जाते

हैं।

''तुम्तुहारा गाँव कहाँहै?''

''उधर नीचे।'' वह जिधर इशारा करती है, उधर केवल पेड़ों का झुरमुट मु है-वही जिसमें सारस ने अपनी गर्दन

छिपा रखी है।

''उधर तो कोई गाँव नहीं है।''

''है। वहाँ, उन पेड़ों के पीछे...।''

वह क्षण-भर खड़ी रहती है-देवदार के तने की तरह सीधी। फिर ढलान से उतरने लगती है। मैं भी उसके

पीछे-पीछे उतरने लगता हूँ। साँझ होने के साथ दरिया का ज़हरमोहरा रंग धीरे-धीरे बैंजबैं नी होता जाता है। वृक्षों वृ के

साये लम्बे होकर अद्श्य होते जाते हैं। फिर भी दूर तक क दू हीं कोई छत, कोई दीवार नज़र नहीं आती...।

कच्ची ईंटों का बना एक पुरा पु ना घर। घर में एक बुड्बुढा और बुढिबु य़ा रहते हैं। दोनों मिलकर मुझेमु झे अपने जीवन

की बीती घटनाएँ सुना सु ते हैं।  

Explanation:ज़िन्दगी की उठा पटक से दूर - बेहद हल्का फुल्का सुकून देने वाला यात्रा – वृतांत । न कोई ऐतिहासिक वर्णन और न ही स्थानीय गाथा - बल्कि जो राह में मिलता चला वही पात्र बन गया।

वर्णन इतना प्रवाहमयी है कि पठन में एक लय बनी रहती है। किताब को जल्दी ख़तम करने की चाह नहीं , बार -बार उन्ही पंक्तियों को पढ़ने की इच्छा होती है।

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