आम के आम गुठलियों के दाम कहावत पर एक कहानी लिखें !!! 100-150 words
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कहावतें परंपराओं की कोख से जनमती हैं। शुभ-लाभ की हमारी सनातन परंपरा है। आम के आम गुठलियों के दाम वाली कहावत पहले यदा-कदा चरितार्थ होती थी। लेकिन बाजारवाद और भूमंडलीकरण के दौर में यह कहावत आम हो गई है। अब ये बात अलग है कि यह कहावत उन किसानों पर लागू नहीं होती जो आम की फसल उगाते हैं। आम का व्यापार करने वाले खास लोगों के लिए जरूर यह बात आम हो गई लगती है।
सच तो यह है कि तेरी गजल हमदम
एक तस्वीर खासो-आम की है।
एक दिन घर के दरवाजे पर खडा सेल्समैन श्रीमती जी को समझा रहा था, मैडम, यह रैकेट बहुत अच्छा है, इसकी नेट में हल्का करंट दौडता है और मच्छर जैसे ही इसके कांटेक्ट में आता है, मर जाता है।
वो तो सब ठीक है कि मच्छर मर जाते हैं, लेकिन इससे हमारा क्या फायदा? श्रीमती जी ने सीधा सा प्रश्न कर डाला। स्पष्ट है-मच्छरों का मर जाना फायदे की बात नहीं। हमारा खून चूसना और दो हाथों के बीच आकर मर जाना मच्छर की नियति है। इसमें फायदा कहां? लेकिन द्वार-द्वार भटकता एमबीए इस बात को समझ गया, फायदा है न मैडम! आज आपको एक रैकेट के दाम में दो मिलेंगे। यह बात उन्हें कायदे की लगी, दोहरे फायदे की लगी और रैकेट खरीद लिए। इसे कहते हैं आम के आम गुठलियों के दाम, यानी दोहरा लाभ। इसमें हमारी श्रीमती जी की नीयत में खोट है- मैं नहीं मानता। मैं तो कहूंगा यह दोहरे लाभ की संस्कृति का असर है।
यूं तो हमारी संस्कृति अति प्राचीन है। हमें इस पर मान है। मानने वाले अभी भी परंपराओं से चिपके हैं। अभिमानी अपने स्वार्थ के अनुसार परंपराओं को तोड-मरोडकर स्वार्थसिद्धि में निमग्न हैं। उनका स्वार्थ सर्वोपरि है। ये सच है, मानव सदा से स्वार्थी रहा। इसी का नतीजा है कि वह विकास करता रहा, चाहे अपने लिए ही क्यों न हो। आज भी भागमभाग में लाभ सर्वोच्च है। बिना लाभ, कोई बात नहीं करता। अब तो यह धारणा भी बदलती नजर आ रही है। लोग दोहरे लाभ की बात हो तो घास डालते हैं। यूं तो घास विवादास्पद है। दोपायों ने घास के चरने में चौपायों से बाजी मार ली है। अब तो बस चलते रहिए और चरते रहिए। चरैवेति-चरैवेति.. चरने के लिए कमी नहीं है। हर संवेदनशील और ईमानदार व्यक्ति घूसखोरी से डरता है। पर बात यदि मुफ्तखोरी की हो तो थोडा विचार किया जा सकता है। यही तो है दोहरे लाभ की संस्कृति- आम के आम गुठलियों के दाम वाली बात। अब यह दोहरे लाभ की संस्कृति नई पीढी में भी नजर आने लगी है। नन्हा बालक रात में सोने के लिए तब तक नहीं जाता जब तक मां ये न कहे कि बेटा आ जाओ, मैं तुम्हें टॉफी दूंगी और बालक शर्त रखता है कि वह एक नहीं दो टॉफी लेगा, साथ में टीवी देखने देने का वादा भी। आज सभी इस संस्कृति से प्रभावित हैं।
आम सदैव से आम है, परेशान है और खास महिमामंडित। हालांकि खास के लिए आम खास होता है, क्योंकि आम ही उसे खास बनाता है। खैर, बात निकली है तो एक आम आदमी - अपने अभिन्न शर्मा जी से मिलाता हूं। एक दिन सुबह-सुबह आ टपके। मैं अभी नींद से ठीक से जागा भी नहीं था।
अरे इतनी सुबह कैसे आना हुआ? मैंने आश्चर्य व्यक्त किया, सब ठीक तो है?
आप परेशान न हों, सब ठीक है, मैं तो यूं ही भ्रमण के लिए निकला था, सोचा यहां निपट लूं, शर्मा जी ने ट्रैक सूट संभालते हुए कहा। वे मेरी आश्चर्यमिश्रित बेतरतीब बासी मुखमुद्रा पहचान गए और मुसकराए, बहुत दिन से आपके दर्शन नहीं हुए थे, इसलिए यह सोचकर इस ओर निकल पडा कि सुबह का घूमना भी हो जाएगा और आपसे मुलाकात भी।
मेरा अभी प्रात: क्रिया से निपटना बाकी था। मन था कि कह दूं कि आप कि प्रात: भ्रमण पर हमारे दर्शन जैसे दोहरे कार्य से निपट चुके, कृपया अब हमें निपटने के लिए छोड दें। लेकिन मैं अपने मन की बात कह नहीं पाया और वे मनमानी करते रहे। हमारे दर्शन के बहाने अपना दिग्दर्शन कराते रहे। नाश्ते का रसास्वादन और चाय की चुस्कियां भी मेरे घर पर लीं। उनके जाने के बाद पत्नी ने इस तरह आडे हाथों लिया कि निपटने की सुध दोबारा आने में एक घंटा लगा।
आम के आम गुठलियों के दाम जैसे-दोहरे लाभ की संस्कृति चरम पर है। इसकी वजह से हमारे एक पडोसी परेशानी में रहे। वे दो दिनों तक अपने घर के बाहर इंतजार करते रहे। दो रातें उन्होंने अपनी नई कार में सोकर गुजारीं। काम ही कुछ ऐसा हो गया था कि उनकी नई कार बाउंड्री वाल के अंदर नहीं जा सकी। नई नवेली कार को घर के बाहर छोडना भी खतरे से खाली न था। कारण जानने पर पता चला कि वह एक्सचेंज ऑफर के दोहरे लाभ में पड गए थे। छुट्टी के दिन सुबह सबेरे दोपहिया वाहन पर सब्जी खरीदने गए थे, लेकिन बाजार में लगे एक्सचेंज ऑफर के लालच में आ गए-कोई भी दोपहिया पुराना वाहन लाओ और कार ले जाओ।
ऑफर की अंतिम तारीख थी। पुराने स्कूटर को बेचने की झंझट बची। वे सब्जी लेने तो गए थे स्कूटर से और लौटे तो कार पर। घर पहुंचे तो घर का मेन गेट छोटा पड गया। कार अंदर न जा सकी। मेन गेट तुडवाकर नया गेट लगवाने में दो दिन लग गए। कुछ समय पूर्व एक नन्हा बालक गड्ढे में जा घुसा। आधा मुल्क सारे काम छोडकर 48 घंटे गड्ढे के अंदर झांकता रहा। खतरों से अनजान नन्हें बालक की नादानी बहादुरी में बदल गई। उसकी लोकप्रियता से प्रभावित होकर अनेक बालक गड्ढों में घुसे। कह नहीं सकता ऐसा किसकी प्रेरणा से हुआ, लेकिन इतना सच है कि लापरवाहीपूर्ण मूर्खता से नेम और फेम दोनों मिल जाती है। और फिर फायदा ही फायदा। कुछ दिनों से मेरे पिलपिले भेजे में एक आइडिया कुलबुलाने लगा है। काश इतने साइज के वयस्क गड्ढे खुदवाए जाते कि मैं उसमें घुसकर मोबाइल करता कि मीडिया वालों आओ और मुझे निकालो। बाहर प्रसिद्धि मेरा इंतजार कर रही है। बचने की गारंटी तो है ही, ऊपर से ढेर सारे उपहार और न जाने क्या-क्या। इसे कहते हैं आम के आम गुठलियों के