Social Sciences, asked by anmolsharma4411, 5 months ago

आप भारत में राजनीतिक दलों के समक्ष कौन-सी तीन चुनौतियों का अनुभव करते हैं।​

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Answered by gopeshmeena44
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राजनीतिक दलों के लिए चुनौतियाँ

राजनीतिक दलों के लिए चुनौतियाँ
(i) पहली चुनौती है पार्टी के भीतर आंतरिक लोकतंत्रा का न होना। सारी दुनिया में यह प्रवृनि बन गर्इ है कि सारी ताकत एक या कुछेक नेताओं के हाथ में सिमट जाती है। पार्टियों के पास न सदस्यों की खुली सूची होती है, न नियमित रूप से सांगठनिक बैठकें होती हैं। इनके आंतरिक चुनाव भी नहीं होते। कार्यकर्ताओं से वे सूचनाओं का साझा भी नहीं करते। सामान्य कार्यकर्ता अनजान ही रहता है कि पार्टी के अंदन क्या चल रहा है। उसके पास न तो नेताओं से जुड़कर फैसलों को प्रभावित करने की ताकत होती है न ही कोर्इ और माध्यम। परिणामस्वरूप पार्टी के नाम पर सारे फैसले लेने का अधिकार उस पार्टी के नेता हथिया लेते हैं। चूँकि कुछेक नेताओं के पास ही असली ताकत होती है इसलिए जो उनसे असहमत होते हैं उनका पार्टी में टिके रह पाना मुश्किल हो जाता है। पार्टी के सिद्धांतों और नीतियों से निष्ठा की जगह नेता से निष्ठा ही ज्यादा महत्वपूर्ण बन जाती है।
(ii) दूसरी चुनौती पहली चुनौती से ही जुड़ी हैμयह है वंशवाद की चुनौती। चूँकि अधिकांश दल अपना कामकाज पारदश्र्ाी तरीके से नहीं करते इसलिए सामान्य कार्यकर्ता के नेता बनने और ऊपर आने की गुंजाइश काफी कम होती है। जो लोग नेता होते हैं वे अनुचित लाभ लेते हुए अपने नजदीकी लोगों और यहाँ तक कि अपने ही परिवार के लोगों को आगे बढ़ाते हैं। अनेक दलों में शीर्ष पद पर हमेशा एक ही परिवार के लोग आते हैं। यह दल के अन्य सदस्यों के साथ अन्याय है। यह बात लोकतंत्रा के लिए भी अच्छी नहीं है क्योंकि इससे अनुभवहीन और बिना जनाधार वाले लोग ताकत वाले पदों पर पहँुच जाते हैं। यह प्रवृत्ति कुछ प्राचीन लोकतांित्राक देशों सहित कमोबेश पूरी दुनिया में दिखार्इ देती है।
(iii) तीसरी चुनौती दलों में, (खासकर चुनाव के समय) पैसा और अपराधी तत्वों की बढ़ती घुसपैठ की है। चूँकि पार्टियों की सारी चिंता चुनाव जीतने की होती है अत: इसके लिए कोर्इ भी जायज-नाजायज तरीका अपनाने से वे परहेज नहीं करतीं। वे ऐसे ही उम्मीदवार उतारती हैं जिनके पास काफी पैसा हो या जो पैसे जुटा सके। किसी पार्टी कोष्ज्यादा धन देने वाली कंपनियाँ और अमीर लोग उस पार्टी की नीतियों और फैसलों को भी प्रभावित करते हैं। कर्इ बार पार्टियाँ चुनाव जीत सकने वाले अपराधियों का समर्थन करती हैैं या उनकी मदद लेती हैैं। दुनिया भर में लोकतंत्रा के समर्थक लोकतांित्राक राजनीति में अमीर लोग और बड़ी कंपनियों की बढ़ती भूमिका को लेकर चिंतित हैैं।
(iv) चौथी चुनौती पार्टियों के बीच विकल्पहीनता की स्थिति की है। सार्थक विकल्प का मतलब होता है कि विभिन्न पार्टियों की नीतियों और कार्यक्रमों में महत्वपूर्ण अंतर हो। हाल के वषोरंल में दलों के बीच वैचारिक अंतर कम होता गया है और यह प्रवृनि दुनिया-भर में दिखती है। जैसे, ब्रिटेन की लेबर पार्टी और कंजरवेटिव पार्टी के बीच अब बड़ा कम अंतर रह गया है। दोनों दल बुनियादी मसलों पर सहमत हैं और उनके बीच अंतर बस ब्यौरों का रह गया है कि नीतियाँ केसे बनार्इ जाएँ और उन्हें केसे लागू किया जाए। अपने देश में भी सभी बड़ी पार्टियों के बीच आर्थिक मसलों पर बड़ा कम अंतर रह गया है। जो लोग इससे अलग नीतियाँ चाहते हैं उनके लिए कोर्इ विकल्प उपलब्ध नहीं है। कर्इ बार लोगों के पास एकदम नया नेता चुनने का विकल्प भी नहीं होता क्योंकि वही थोड़े से नेता हर दल में आते-जाते रहते हैं।
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