आरती का घंटा
बात उस समय की है, जब मैं आठ वर्ष की थी।
हमारे घर के पास जगन्नाथ जी का एक मंदिर
हुआ करता था। रोज़ शाम को सारे बच्चे उस
मंदिर में जाते थे। हमारा उद्देश्य मंदिर में जाकर
आरती के समय घंटा, थाली और मंजीरे बजाने
का होता था। इसमें बड़ा मज़ा आता था। जो
पहले तीन बच्चे पहुँचते थे, उन्हीं को इन्हें बजाने
का अवसर मिलता। बाकी सारे मुँह ताकते और
हम बाद में उन्हें बहुत चिढ़ाते। मैं हमेशा घंटे को
बजाने में खुश रहती थी। वह पीतल की धातु से
बना होता था। रोटी जैसा दिखता था, मगर उससे मोटा और भारी होता था। उस पर मोटी रस्सी लगी होती थी, जिसे हाथ
में पकड़ा जाता था और एक ठोस लकड़ी से उस पर चोट करनी पड़ती थी। यह चोट एक अंतराल पर करनी पड़ती थी।
पुजारी जी की आरती के साथ उसकी ताल बिठानी होती थी। उसका अपना मज़ा था। मैं उसके लिए जल्दी से स्कूल का
काम कर लेती और मुँह-हाथ धोकर बैठ जाती। एक बार जल्दी पहुँचने के प्रयास में मैं सीढ़ियों से गिर गई। बहुत चोट
आई। कुछ दिनों तक मंदिर में जाना नहीं हुआ। घरवालों ने मना कर दिया था, मगर मेरा मन नहीं माना। मैं वहाँ थोड़ी देर
में पहुँची। पुजारी ने मुझे अपने पास बुलाया और एक नया घंटा दिया। उन्होंने बताया कि वह यह घंटा मेरे लिए लाए हैं।
मुझे अब भागकर आने की ज़रूरत नहीं है। मेरे लिए वह बड़ी खुशी का दिन था।
(how was this story tell me)
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very nice
I love this story
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