Hindi, asked by shilendrasinha8435, 5 hours ago

आश्रम के व्यवस्था में एक लेख लिखिए.​

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Answered by llsonu02ll
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Explanation:

आश्रम मनुष्य के प्रशिक्षण की समस्या से सम्बद्ध है जो संसार की सामाजिक विचारधारा के सम्पूर्ण इतिहास में अद्वितीय है । हिन्दू व्यवस्था में प्रत्येक मनुष्य का जीवन एक प्रकार के प्रशिक्षण तथा आत्मानुशासन का है ।

इस प्रशिक्षण के दौरान उसे चार चरणों से होकर गुजरना पड़ता है । ये प्रशिक्षण की चार अवस्थायें हैं । ‘आश्रम’ शब्द की उत्पत्ति ‘श्रम’ धातु से है जिसका अर्थ है परिश्रम या प्रयास करना । इस प्रकार आश्रम वे स्थान है जहाँ प्रयास किया जाये ।

मूलत: आश्रम जीवन की यात्रा में एक विश्राम स्थल का कार्य करते हैं, जहाँ आगे की यात्रा के लिये तैयारी की जाती है । जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है । प्रभु ने मोक्ष प्राप्ति की यात्रा में आश्रमों को विश्रामस्थल बताया है ।

आश्रम व्यवस्था के मनोवैज्ञानिक-नैतिक आधार पुरुषार्थ हैं जो आश्रमों के माध्यम से व्यक्ति को समाज के साथ सम्बद्ध कर उसकी व्यवस्था तथा संचालन में सहायता प्रदान करते हैं । एक ओर जहाँ मनुष्य आश्रमों के माध्यम से जीवन में पुरुषार्थों के उपयोग करने का मनोवैज्ञानिक प्रशिक्षण प्राप्त करता है तो दूसरी ओर व्यवहार में वह समाज के प्रति इनके अनुसार जीवनयापन करता हुआ अपने कर्तव्यों को पूरा करता है ।

प्रत्येक आश्रम जीवन की एक अवस्था है जिसमें रहकर व्यक्ति एक निश्चित अवधि तक प्रशिक्षण प्राप्त करता है । महाभारत में वेद-व्यास ने चारों आश्रमों को ब्रह्मलोक पहुँचने के मार्ग में चार सोपान निरूपित किया है । भारतीय विचारकों ने चतुराश्रम व्यवस्था के माध्यम से प्रवृत्ति तथा निवृत्ति के आदर्शों में समन्वय स्थापित किया है ।

आश्रमों की उत्पत्ति के समय के विषय में मतभेद है । रिज डेविड्‌स जैसे कुछ विद्वानों की मान्यता है कि आश्रमों का प्रचलन बुद्ध के बाद अथवा त्रिपिटकों की रचना के पश्चात् हुआ होगा क्योंकि इनमें उनका उल्लेख नहीं मिलता है । किन्तु यह मत असंगत लगता है ।

कारण कि उत्तर वैदिक कालीन ग्रन्थों में हम आश्रमों का यत्र-तत्र उल्लेख प्राप्त करते हैं । ऐतरेय ब्राह्मण, तैत्तीरीय संहिता, शतपथ ब्राह्मण आदि में इनका उल्लेख है । जाबालोंपनिषद् में हम सर्वप्रथम चारों आश्रमों का उल्लेख प्राप्त करते हैं ।ऐसा प्रतीत होता है कि आश्रमों की कल्पना उपनिषद् काल में ही हो चुकी थी किन्तु सूत्रकाल तक आते-आते यह व्यवस्था समाज में पूर्णतया प्रतिष्ठित हो गयी । स्मृतिकाल में विभिन्न आश्रमों के विधि-विधान निर्धारित किये गये । लगता है कि चारों आश्रमों का विधान भी एक साथ नहीं हुआ होगा ।

प्रारम्भ में मात्र दो आश्रम थे- ब्रह्मचर्य तथा गृहस्थ । तत्पश्चात् वानप्रस्थ तथा अन्तोगत्वा सन्यास आश्रम का विधान किया गया होगा । सन्यास की उत्पत्ति निश्चयत: अवैदिक श्रमण विचारधारा के प्रभाव से हुई थी । सूत्रकाल तक समाज में आश्रम व्यवस्था पूर्णरूपेण प्रतिष्ठित हो चुकी थी ।

स्मृतिकाल में विभिन्न आश्रमों के नियम निर्धारित किये गये । ए. एल. बाशम की धारणा है कि हिंदू समाज में आश्रम आदर्श रूप में थे तथा व्यवहार में इनका पालन कम ही हुआ । किन्तु यह विचार उचित नहीं लगता । हिन्दू शास्त्रकारों ने इस बात पर सदा बल दिया कि चारों आश्रमों का पालन क्रमशः किया जाना चाहिए ।

कौटिल्य अर्थशास्त्र में लिखता है कि- ‘राजा का यह कर्तव्य है कि वह प्रजा से वर्णाश्रम धर्म के नियमों का पालन करवाये । इनके उल्लंघन से समाज में अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न होती है तथा संसार का नाश होता है । वर्णाश्रम नियमों के पालन से संसार की उन्नति होती है ।’

इस प्रकार स्पष्ट है कि वर्णाश्रम धर्म का आचरण न केवल समाज में संतुलन बनाये रखने, अपितु उसकी उन्नति के लिये भी अभीष्ट था । किन्तु धर्मशास्त्रों द्वारा प्रतिपारित चतुराश्रम व्यवस्था के नियमों का पालन प्राचीन इतिहास के सभी काली में समान रूप से किया गया हो ऐसी बात नहीं है ।

पूर्वमध्यकाल तक आते-आते हम इसमें कुछ परिवर्तन पाते हैं । इस काल के कुछ पुराण तथा विधि ग्रन्थ यह विधान करते हैं कि कलियुग में दीर्घकाल तक ब्रह्मचर्य पालन तथा वानप्रस्थ में प्रवेश से बचना चाहिए । बाल विवाह के प्रचलन के कारण भी ब्रह्मचर्य का पालन कठिन हुआ होगा ।

शंकर तथा रामानुज दोनों ने इस बात का उल्लेख किया है कि साधनों के अभाव तथा निर्धनता के कारण अधिकांश व्यक्ति आश्रम व्यवस्था का पालन नहीं कर पाते थे । इस प्रकार ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन इतिहास के अन्तिम काल तक आते-आते यह व्यवस्था कुछ विशेष कुलों तक ही सीमित रह गयी थी ।

आश्रमों का पुरुषार्थों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध माना गया है । ब्रह्मचर्य में धर्म प्रमुख रहता है । यहाँ धर्म की पूरी शिक्षा मिलती है । इसके द्वारा ब्रह्मचारी अर्थ और काम पर नियंत्रण स्थापित करते हुए जीवनयापन करता है । मोक्ष का महत्व भा इसी समय वह जान लेता है ।

गृहस्थाश्रम में अर्थ तथा काम प्रधान साध्य होते हैं । यहाँ मनुष्य धर्मानुसार उनका उपभोग करता है । धर्म, अर्थ एवं काम के उच्छृंखल उपयोग को रोकने में सहायक होता है । वानप्रस्थ में धर्म तथा मोक्ष साध्य होते हैं और प्रथम स्थान धर्म का रहता है ।

Answered by puniav76
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Answer:

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।

*ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास।

*धर्म से मोक्ष और अर्थ से काम साध्‍य माना गया है। ब्रह्मचर्य और गृहस्थ जीवन में धर्म, अर्थ और काम का महत्व है। वानप्रस्थ और संन्यास में धर्म प्रचार तथा मोक्ष का महत्व माना गया है।

प्राचीन भारत में ऋषि-मुनि वन में कुटी बनाकर रहते थे। जहाँ वे ध्यान और तपस्या करते थे। उक्त जगह पर समाज के लोग अपने बालकों को वेदाध्यन के अलावा अन्य विद्याएँ सीखने के लिए भेजते थे। धीरे-धीरे यह आश्रम संन्यासियों, त्यागियों, विरक्तों धार्मिक यात्रियों और अन्य लोगों के लिए शरण स्थली बनता गया।

 

यहीं पर तर्क-वितर्क और दर्शन की अनेकों धारणाएँ विकसित हुई। सत्य की खोज, राज्य के मसले और अन्य समस्याओं के समाधान का यह प्रमुख केंद्र बन गया। कुछ लोग यहाँ सांसारिक झंझटों से बचकर शांतिपूर्वक रहकर गुरु की वाणी सुनते थे। इसे ही ब्रह्मचर्य और संन्यास आश्रम कहा जाने लगा।

ब्रह्मचर्य आश्रम को ही मठ या गुरुकुल कहा जाता है। ये आधुनिक शिक्षा के साथ धार्मिक शिक्षा के केंद्र होते हैं। यह आश्रय स्थली भी है। पुष्‍ट शरीर, बलिष्ठ मन, संस्कृत बुद्धि एवं प्रबुद्ध प्रज्ञा लेकर ही विद्यार्थी ग्रहस्थ जीवन में प्रवेश करता है। विवाह कर वह सामाजिक कर्तव्य निभाता है। संतानोत्पत्ति कर पितृऋण चुकता करता है। यही पितृ यज्ञ भी है।

 

ब्रह्मचर्य और गृहस्थ आश्रम में रहकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की शिक्षा लेते हुए व्यक्ति को 50 वर्ष की उम्र के बाद वानप्रस्थ आश्रम में रहकर धर्म और ध्यान का कार्य करते हुए मोक्ष की अभिलाषा रखना चाहिए अर्थात उसे मुमुक्ष हो जाना चाहिए। ऐसा वैदज्ञ कहते हैं।

 

आश्रमों की अपनी व्यवस्था होती है। इसके नियम होते हैं। आश्रम शिक्षा, धर्म और ध्यान व तपस्या के केंद्र हैं। राज्य और समाज आश्रमों के अधीन होता है। सभी को आश्रमों के अधीन माना जाता है। मंदिर में पुरोहित और आश्रमों में आचार्यगण होते हैं। आचार्य की अपनी जिम्मेदारी होती है कि वे किस तरह समाज में धर्म कायम रखें। राज्य के निरंकुश होने पर अंकुश लगाएँ। किस तरह विद्यार्थियों को शिक्षा दें, किस तरह वे आश्रम के संन्यासियों को वेदाध्ययन कराएँ और मुक्ति की शिक्षा दें। संन्यासी ही धर्म की रीढ़ हैं।

 

राज्य, समाज, मंदिर और आश्रम को धर्म संघ के अधीन माना गया है। आचार्यों के संगठन को ही संघ कहा जाता है। संघ की अपनी नीति और उसके अपने नियम होते हैं। जो संन्यासी आश्रम से जुड़ा हुआ नहीं है उसे संन्यासी नहीं माना जाता। संन्यासियों का मंदिर से कोई वास्ता नहीं होता।

 

आश्रम चार हैं- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। आश्रम ही हिंदू समाज की जीवन व्यवस्था है। आश्रम व्यवस्था के अंतर्गत व्यक्ति की उम्र 100 वर्ष मानकर उसे चार भागों में बाँटा गया है।

 

उम्र के प्रथम 25 वर्ष में शरीर, मन और ‍बुद्धि के विकास को निर्धारित किया गया है। दूसरा गृहस्थ आश्रम है जो 25 से 50 वर्ष की आयु के लिए निर्धारित है जिसमें शिक्षा के बाद विवाह कर पति-पत्नी धार्मिक जीवन व्यतीत करते हुए परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करते हैं। उक्त उम्र में व्यवसाय या कार्य को करते हुए अर्थ और काम का सुख भोगते हैं।

 

50 से 75 तक की आयु से गृहस्थ भार से मुक्त होकर जनसेवा, धर्मसेवा, विद्यादान और ध्यान का विधान है। इसे वानप्रस्थ कहा गया है। फिर धीरे-धीरे इससे भी मुक्त होकर व्यक्ति संन्यास आश्रम में प्रवेश कर संन्यासियों के ही साथ रहता है।

 

नोट : वर्तमान युग में आश्रम व्यवस्था खतम हो चुकी है। आश्रमों के खतम होने से संघ भी नहीं रहे। संघ के खतम होने से राज्य भी मनमाने हो चले हैं। वर्तमान में जो आश्रम या संघ हैं वे क्या है हम नहीं जानते।

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