आत्मकथा की दृष्टि से जूठन की विशेषताएं बताइए
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आजादी के महज 3 वर्षो बाद जून की तपती दोपहरी में 30 तारीख को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में इनका जन्म हुआ था. वैसे ये भी जन्मे तो हर साधारण बालक की तरह ही थे, पर समाज के अन्त्यज वर्ग में पैदा होने के कारण शायद इनको वे सुख सुविधाए नहीं मिली जो और किसी बालक को मिलनी चाहिए थी.आज भी जिस शब्द को उच्च वर्ण के लोग गाली की तरह उपयोग करते है (भंगी या चूहड़ा) ऐसे वर्ण या जाति में इनका जन्म हुआ था. इस वर्ण में पैदा होना ही उस समय भारत देश में सबसे बड़ी गलती मानी जाती थी.भले ही अम्बेडकर के सुधारवादी नारे, और गाँधी के हरिजन सुधार के नारे फिजा से पूरी तरह गायब नहीं हुए थे पर फिर भी इन नारों और आंदोलनों का मखौल पुरे देश में उड़ाया जा रहा था. दलित परिवार के लोगो को आदमी नहीं समझा जाता था. वाल्मीकि जी ने हिंदी साहित्य से परास्नातक की उपाधि ली और साहित्य सेवा में लग गए. पुरे जीवन भर दलित साहित्य की रचना के द्वारा दलितों का उद्धार करने का प्रयास किया, अनेको नाटक, उपन्यास,कहानियाँ आदि इनकी जिजीविषा की कहानी कहते नजर आते है. अभी विगत वर्ष में नवम्बर महीने में इनका देहावसान हो गया.जूठन की कथावस्तु तथा कल और आज का समाज- पहले पहल तो पुस्तक का शीर्षक ही काफी चौकाने और सोचने वाला है. काफी लोगो ने विचार किया की आखिर जूठन कैसा नाम है. पर इस नाम को रखने के पीछे लेखक का जो दर्द छिपा हुआ है उसे उन्होंने बताते हुए अपने बचपन के दिनों को याद किया है.बचपन के दिनों को बताते हुए वे कहते है की कैसे उनकी माता और पिता दोनों हाड़तोड़ मेहनत करते थे पर उसके बाद भी दोनों समय निवाला मिलना दुष्कर कार्य था, उनकी माता कई तथाकथित ऊँचे घरो में झाड़ू पोछे का काम करती थी और बदले में मिलता था उन्हें रुखी सुखी रोटियाँ जो जानवरों के भी खाने लायक नहीं होती थी, उसी को खाकर गुजारा करना पड़ता था. ऐसे समय में जब किसी सवर्ण के घर बारात आती थी या उत्सव का कोई अवसर आता था तो उस क्षेत्र के सारे दलित खुश हो जाते थे, क्यूँकी भोजन के बाद फेके जाने वाले पत्तलों को उठाकर वे घर ले जाते और उनके जूठन को एकत्र करके कई दिनों तक खाने के काम में लाते, इस घृणित कार्य के बाद भी पेट की भूख शांत होने पर उन्हें थोड़े समय के लिए ख़ुशी ही मिलती थी.उपरोक्त विवरण को जब मै पढ़ रहा था तो मुझे अपने जीवन के कुछ प्रसंग अनायस याद आ गए, जैसे मेरी दादी कहा करती थी की उनके बचपन में गाँव के चमार(शायद गाँधी जी द्वारा निर्मित हरिजन शब्द से उनका पाला न पड़ा था) जब खेती कट जाती थी और बैलो के द्वारा अनाज को भूसे से अलग किया जाता था, ऐसे में बैल जो गोबर करते थे उन्हें अपने घर ले जाते थे उसमे से खड़े अनाज निकालकर और धोकर उसे खाते थे.मुझे ये बाते बड़ी खराब लगती थी और उस समय कुछ समझ में भी नहीं आता था साथ में यह बाते अमानवीय लगती थी.या जब मेरे किसी रिश्तेदारी में कोई उत्सव होता था तो उत्सव के उपरान्त आस-पास के सारे दलित एकत्र होकर बचा खाना लेने आते थे, उनके चेहरे पर जो ख़ुशी या ऐसी ही कोई भावना जब उभरती थी तो मेरी समझ में नहीं आता था की ये क्या है.
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