History, asked by jat116810, 7 months ago

अभ्यासप्रश्न
1.1823 ई. में अंग्रेजों ने सबसे अंत में राजस्थान के विज रियासत
2.1857 ई. की क्रांति आरंभ होने के समय राजस्थान में कहां-कहां से मार
3. राजस्थान में 1857 ई. की क्रांति का आरम किस दिनाक को
4. राजस्थान के उन तीन प्रमुख स्थानों का नाम लिए जहां 10671
5. राजस्थान के उन तीन राजाओं के नामों का उल्लेल कीजिए कि 191ay
क्रांतिकारियों का सहयोग किया?
1 राजस्थान में अंग्रेजी साम्राज्य के आरंभिक विस्तार मानेर
2. राजस्थान में 1857 ई की क्रांति के आम के प्रमुख का war
3. राजस्थान में 1857 की क्रांति में मेवाल के गवन
अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न:
लघु उत्तरात्मक प्रश्न
को दौरान​

Answers

Answered by Piyush4243
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Answer:१८५७ में राजस्थान क्रांति के पूर्व जहाँ राजस्थान में अनेक शासक ब्रिटिश भक्त थे, वहीं राजपूत सामन्तों का एक वर्ग ब्रिटिश सरकार का विरोध कर रहा था। अत: उसने अपने स्वार्थों के वशीभूत होकर अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। इस अवसर पर उन्हें जनता का समर्थन भी प्राप्त हुआ। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि राजस्थान की जनता में भी ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध असंतोष की भावनाएं विद्यमान थी।

विप्लव का सूत्रपात - राजस्थान में नसीराबाद में सर्वप्रथम विप्लव का सूत्रपात हुआ, जिसके प्रमुख कारण निम्नलिखित थे -

(१) ए.जी.जी. (एजेन्ट टू गवर्नर जनरल) ने अजमेर में स्थित १५वीं बंगाल इन्फैन्ट्री को अविश्वास के कारण नसीराबाद भेज दिया था, जिसके कारण सैनिकों में असंतोष के कारण नसीराबाद भेज दिया था, जिसके कारण सैनिकों में असंतोष उत्पन्न हो गया।

(२) अंग्रेजों ने फस्र्ट बम्बई लांसर्स के सैनकों से नसीराबाद में गश्त लगवाना प्रापम्भ कर दिया व बारुद भरी तौपें तैयार करवाई, जिसके कारण सैनिकों में असंतोष व्याप्त हो गया।

(३) २८ मई, १८५७ ई. को नेटिव इन्फैक्ट्री के सैनिकों ने नसीराबाद में विद्रोह कर दिया। अन्य टुकड़ियाँ भी उनके समर्थन में आ गयी। उन्होंने कई अंग्रेजों को मार डाला तथा उनके घर जला दिए। उसके बाद विद्रोह सैनिकों ने दिल्ली की ओर प्रस्थान किया।

नीमच में विद्रोह

३ जून, १८५७ ई. को नीमच के सैनिकों ने विद्रोह कर दिया और अनेक अंग्रोजों को मार डाला। वे नीमच से रवाना हो गए और चित्तोड़गढ़, हम्मीरगढ़, बनेड़, शाहपुरा, निम्बाहेड़ा, देवली, टोंक तथा आगरा तक होते हुए दिल्ली पहुंचे सभी स्थानों पर जनता ने विद्रोही सैनिकों का स्वागत किया। ८ जून, १८५७ ई. को कम्पनी सरकार ने नीमच पर अधिकार कर लिया। इस समय मेवाड़ के सैनिकों में भी असंतोष फैल रहा था, परन्तु कप्तान शावर्स ने सूझबूझ का परिचय दिया, जिसके कारण वहाँ विद्रोह नहो सका।

जोधपुर में विद्रोह

जोधपुर के शासक तख्तसिंह के विरुद्ध वहाँ के जागीरदारों में घोर असंतोष व्याप्त था। इन विरोधियों का नेतृत्व आउवा का ठाकुर कुशाल सिंह कर रहा था। २१ अगस्त १८५७ ई. को जोधपुर लीजियन को सैनिक टुकड़ी ने विद्रोह कर दिया। चूंकि कुशाल सिंह अंग्रेजों का विरोधी था अत: उसने इन विद्रोही को अपने साथ मिला लिया।

इस पर कुशाल सिंह का सामना करने हेतु लिफ्टिनेट हीथकोट के नेतृत्व में जोधपुर की राजकीय फौज आई, जिसे कुशाल सिंह ने ८ सितम्बर, १८५७ ई. को आउवा के निकट परास्त किया। तत्पश्चात् जार्ज लारेन्स ने १८ सितम्बर १८५७ को आउवा के किले पर आक्रमण किया और विद्रोहियों को वहां से खदेड़ दिया। किन्तु विद्रोहियों के हाथों वह बुरी तरह पराजित हुआ। इसी जोधपुर का पोलिटिकल एजेन्ट कप्तान मोंक मेसन विद्रोहियों के हाथों मारा गया।

इस पराजय का बदला लेने के लिए ब्रिगेडियर होम्स ने एक सेना के साथ प्रस्थान किया और २० जनवरी १८५८ ई. को उसने आउवा पर आक्रमण कर दिया। इस समय तक विद्रोही सैनिक दिल्ली में पहुँच चुके थे तथा अंग्रोजों ने आसोप गूलर तथा आलणियावास की जागीरों पर अधिकार कर लिया था। जब कुशल सिंह को विजय की कोई उम्मीद नहीं रही तो उसने आउवा के किले का बार अपने छोटे भाई पृथ्वीसिंह को सौंप दिया और वह सलुम्बर चला गया। १५ दिन के संघर्ष के बाद अंग्रेजों ने आउवा पर अधिकार कर लिया।

अंग्रेजों ने आउवा पर अधिकार करने के बाद पूरे गाँव को बुरी तरह लूटा एवं वहाँ के मंदिरों तथा मूर्तियों को नष्ट कर दिया। आउवा से प्राप्त गोला-बारुद का प्रयोग आउवा के केलि को ध्वस्त करने में किया गया। अंग्रेजों ने आउवा के निवासियों पर बहुत भयंकर अत्याचार किए।

मेवाड़ के अप्रत्यक्ष विद्रोही

इस समय मेवाड़ के सामन्तों में अंग्रेजों तथा महाराणा के विरुद्ध भयंकर असंतोष विद्यमान था इस समय सामंतों में आपसी संघर्ष की आशंका बनी हुई थी। अत: कप्तान शावर्स को मेवाड़ में पोलिटिकल एजेन्ट नियुक्त किया गया। महाराणा ने कहा कि यदि मेवाड़ में विद्रोह भड़कता है, तो सभी सामन्त अंग्रेजों की सहायता के लिए अपनी सेना तैयार रखे। उन्होंने नीमच से भागकर आए हुए अंग्रेजों को अपने यहाँ शरण दी।

जनता में अंग्रेजों के विरुद्ध घोर असन्तोष की भावना व्याप्त थी। कप्तान शार्वस ने मेवाड़, कोटा तथा बून्दी की राजकीय सेनाओं के सहयोग से नीमच पर अधिकार कर लिया। इसी समय सलुम्बर के रावत केसरी सिंह ने उदयपुर के महाराणा को चेतावनी दी कि यदि आठ दिन में उसके परम्परागत अधिकार को स्वीकार न किया गया तो वह उसके प्रतिद्वन्दी को मेवाड़ का शासक बना देगा।।

सलुम्बर के रावत ने आउवा के ठाकुर कुशाल सिंह तथा बनेड़ के विद्रोहियों को अपने यहाँ शरण दी। कोठरिया के रावत जोधसिंह ने भी अपने यहाँ विद्रोहियों को शरण दी।

इसी समय २३ जून, १८५८ ई. को तात्यां टोपे अलीपुर के युद्ध में पराजित हुआ उसके बाद वह भागकर राजपूताने की ओर गया। तात्यां टोपे भीलवाड़ा में भी अंग्रोजों के हाथों पराजित हुआ। उसके बाद वह कोठरिया की तरफ गया। वहां के रावत ने उसकी खाद्य सामग्री की सहायता की। सलुम्बर के रावत ने भी उसे रसद की सहायता दी तथा जनरल म्यूटर ने जब तक गोलीबारी करने की धमकी न दे दी, तब तक उसे रसद की सहायता न दी।  

अन्त में अप्रैल, १८५९ ई. में नरवर के राजपूत, जागीरदार मानसिंह ने तात्यां टोपे के साथ धोखा किया, जिसके कारण तात्यां टोपे को गिरफ्तार कर लिया। इस प्रकार १८५७ के विप्लव के समय यद्यपि मेवाड़ के सामन्तों ने प्रत्यक्षरुप से अंग्रेजों के विरुद्ध कोई विद्रोह नहीं किया था। तथापि विद्रोहियों को शरण तथा सहायता देकर अप्रत्यक्ष रुप से विद्रोह के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

कोटा में विद्रोह

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