अजौ तरयौना ही रह्यो, श्रुति सेवत इक रंग।
नाक-बांस बेसरि लयो, बसि मुकुतनु कै संग।
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अजौ तरयौना ही रह्यो, श्रुति सेवत इक रंग।
नाक-बांस बेसरि लयो, बसि मुकुतनु कै संग।
संदर्भ : यह पद कवि बिहारी द्वारा रचित दोहों से संकलित किया गया है। इस दोहे के माध्यम से कवि बिहारी ने राज दरबार में फैली चुगली वाली प्रवृत्ति पर व्यंग किया है।
भावार्थ : कवि बिहारी कहते हैं कि कानों में पहने जाने वाले आभूषण तरयौना ने एक ही रंग यानी सोने के रंग में रहने के कारण कोई उन्नति नहीं की और शुरू से लेकर आखिर तक कानों में ही पहना जाता रहा है, जबकि मोतियों को साथ में लेकर चलने वाले नाक के आभूषण ने व्यक्ति के सम्मान के प्रतीक नाक पर स्थान पा लिया है।
व्याख्या : कवि का कहने का तात्पर्य यह है कि राजदरबार में जो चाटुकार होते हैं, वह निरंतर राजा के कान भरते रहते हैं, और वह अपने इस कृत्य के कारण राजा की नजरों में कोई सम्मान नही पा पाते तथा अपनी उन्नति नहीं कर पाते, केवल चुगली में ही लगे रहते हैं, जबकि जो निष्पक्ष भाव से कार्य करते हैं, सभी लोगों का साथ देते हैं, वह सम्मान का प्रतीक बन जाते हैं और राजा द्वारा सम्मान पाते हैं।
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अजौ तरयौना ही रह्यो, श्रुति सेवत इक रंग।
नाक-बांस बेसरि लयो, बसि मुकुतनु कै संग।
दोहे में कवि ने सत्संग की महिमा दिखाई है | कानों में एक ही तरह के आभूषण पहनने से वह एक जैसे दीखते है | जब मोतियों से बनी नथ नाक में पहनी जाती है तब उसका एक लग ही स्थान ग्रहण कर लेती है |
उसी प्रकार , निरंतर राजा के कान भरने वाले लोगों की अभी तक दरबार में कोई उन्नति नहीं हो पाई। अच्छे लोगों की संगती में रहने से अच्छे मार्ग खुल जाते है |