Hindi, asked by khezir6447, 1 year ago

Alberuni dwara likhit hindustan k bare

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Answered by atuldubey740
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महमूद गजनवी के साथ एक घुमक्कड़ अल बिरूनी भी भारत आया और यहां से लौटने के बाद उसने अपनी भारत यात्रा पर एक लाजवाब किताब लिखी- किताबुल हिंद। यानी हिंद की किताब। इस किताब में उसने भारतीयों के सारे ज्ञान-विज्ञान की अरबी में व्याख्या की है। उसने काफी हद तक निरपेक्ष बने रहकर भारत को समझने की कोशिश की है पर जैसा कि हर अरबी यायावर के साथ हुआ कि वे अपने धर्म को इतना महान समझते रहे हैं कि उसके आगे हर एक के दार्शनिक चिंतन को न सिर्फ खरिज करते रहे बल्कि उसके दर्शन को घटिया सोच वाला बताने में तनिक भी संकोच नहीं किया। यही हाल अल बिरूनी का भी रहा। हालांकि भारतीयों के अंक विज्ञान की जानकारी और उनकी खगोलीय जानकारी तथा वैद्यक समझ से वह आकर्षित भी हुआ मगर जिस सांख्य दर्शन की वह भूरि-भूरि प्रशंसा करता है उसे भी इस्लाम के मुकाबले कमतर बताने में उसने अपनी सारी मेधा को व्यर्थ किया। जर्मन विद्वान डॉक्टर एडवर्ड सी सखाउ ने सबसे पहले अल बिरूनी की इस किताब का अंग्रेजी अनुवाद किया और इसके बाद यह पुस्तक हिंदी मे आई। मगर यह किताब भारत के बारे में पहली बार किसी मुस्लिम विजेता के दृष्टिकोण को बताती तो है ही। साथ में भारतीयों के अपने चिंतन की श्रेषठता के दंभ के बारे में भी। अल बिरूनी का कहना है कि भारतीय चूंकि विदेश जाना पसंद नहीं करते बल्कि वे विदेशियों के प्रति एक बैर का-सा भाव रखते हैं इसलिए उनका चिंतन एकांगी हो गया है और वे विश्व पटल पर अनजाने रह गए।

शुरुआती अरबी हमलावरों का जिक्र करते हुए अल बिरूनी लिखता है कि मुहम्मद बिन कासिम ने जब मुल्तान प्रांत जीता तब उसे बताया गया कि मुल्तान की सारी समृद्घि उस देव प्रतिमा की मेहरबानी के चलते है जिसे उसने अपवित्र कर दिया है तो उसने तत्काल उस प्रतिमा को छोड़ दिया साथ ही उसने सिसली से लूटी गई एक अन्य प्रतिमा भी भेज दी ताकि उस शहर की समृद्घि बनी रहे। अल बिरूनी लिखता है कि मुहम्मद बिन कासिम का हमला लूट की वजह से अधिक था इस्लाम के प्रसार हेतु नहीं। वर्ना वह मूर्ति वहां क्यों लगवाता। स्वयं अल बिरूनी ही लिखता है कि उस समय यानी ईसा की ११वीं सदी में हिंदुओं का भद्र लोक मूर्ति पूजा की बजाय मानता था कि ईश्वर एक है और उसे किसी मूर्ति से नहीं बांधा जा सकता क्योंकि वह अव्यक्त है। उसके अनुसार सामान्य जनता चूंकि ईश्वर की इस विशेषता को नहीं समझती इसीलिए उसे एक ठोस आधार चाहिए जो मूर्ति है।

अल बिरूनी लिखता है कि जब महमूद गजनवी ने हिंदुस्तान के कई राजाओं की स्वाधीनता छीनी और उन्हें अपने अधीन किया तो पंजाब के आनंदपाल ने एक विचित्र शर्त रख दी कि उसे सुल्तान महमूद की अधीनता स्वीकारने में कोई उज्र नहीं है बशर्ते सुल्तान दो बातें मान ले। एक तो उसके राज्य में गायों का वध नहीं होगा दूसरे अरब लोगों में चली आ रही पुरुषों की समलैंगिकता को यहां अनुमति नहीं मिलेगी। सुल्तान चूंकि तुर्क था इसलिए उसने ये दोनों शर्तें मान लीं। इससे एक बात का पता तो चलता ही है कि गाय का वध नहीं करने की परंपरा तब भी थी। अल बिरूनी ने लिखा है कि प्राचीन काल में राजा वासुदेव ने गाय के वध पर रोक लगवा दी थी। ये राजा वासुदेव शायद कृष्ण रहे होंगे। पुरुष समलैंगिकता को बढ़ावा अरब देशों में था। इसलिए भी कि रेगिस्तानी देशों में महिलाओं की आबादी पुरुषों की तुलना में शायद कम रही होगी। अल बिरूनी भले एक तुर्क हमलावर महमूद गजनवी के साथ आया हो पर वह था एक गुलाम ही। सखाउ ने लिखा है कि अल बिरूनी, जिसका पूरा नाम अबू रेहान मुहम्मद इब्न-ए-अहमद था, ने किताब फी तहकीक मा लिल हिन्द मिन मकाला मक्बूला फिल अक्ल-औ- मरजूला के नाम से लिखी थी। इसी किताब को बाद में किताबुलहिंद कहा गया। सखाउ ने बताया है कि अल बिरूनी कोई अरब नहीं बल्कि ईरानी मूल का मुसलमान था और ख्वारिज्म का रहने वाला था जो तुर्किस्तान की सीमा पर था और बाद में जब ख्वारिज्म पर महमूद गजनवी ने अधिकार कर लिया तो वहां के अधिकतर लोग बंधक बना लिए गए और इन्हीं बंधकों में से अल बिरूनी भी था। सुल्तान महमूद से अल बिरूनी के संबंध बहुत अच्छे नहीं थे वर्ना वह अपनी भारत यात्रा में महमूद गजनवी का जिक्र बहुत कम करता है। जबकि वह आया सुल्तान महमूद गजनवी के साथ ही था।
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