अमृत ज्ञान को बात जाने से क्या हैरानी हुई
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अमृत की दशा-(प्रवचन-05)
प्रवचन–पांचवां
मैं विचार में हूं–किस संबंध में आपसे बातें करूं। और बातें इतनी ज्यादा हैं और दुनिया इतनी बातों से भरी है कि संकोच होना बहुत स्वाभाविक है। बहुत विचार हैं, बहुत उपदेश हैं, सत्य के संबंध में बहुत से सिद्धांत हैं। यह डर लगता है कि कहीं मेरी बातें भी उस बोझ को और न बढ़ा दें, जो कि मनुष्य के ऊपर वैसे ही काफी है। बहुत संकोच अनुभव होता है। कुछ भी कहते समय डर लगता है कि कहीं वह बात आपके मन में बैठ न जाए। बहुत डर लगता है कि कहीं मेरी बात को आप पकड़ न लें। बहुत डर लगता है कि कहीं वह बात आपको प्रिय न लगने लगे; कहीं वह आपके मन में स्थान न बना ले।
चूंकि मनुष्य विचारों और सिद्धांतों के कारण ही पीड़ित और परेशान है। उपदेशों के कारण ही मनुष्य के जीवन में सत्य का आगमन नहीं हो पाता है। दूसरों के द्वारा कही गई और दी गई बातें ही उस सत्य के बीच में बाधा बन जाती हैं जो हमारे पास है और निरंतर है।
ज्ञान बाहर से उपलब्ध नहीं होता; और जो भी बाहर से उपलब्ध हो जाए, वह ज्ञान को रोकने में कारण बन जाता है। मैं भी बाहर हूं। मैं जो भी कहूंगा, वह भी बाहर है। उसे ज्ञान मत समझ लेना। वह ज्ञान नहीं है। वह आपके लिए ज्ञान नहीं हो सकता। जो भी कोई दूसरा आपको देता हो, वह आपके लिए ज्ञान नहीं हो सकता। हां, उससे एक खतरा हो सकता है कि वे बातें आपके अज्ञान को ढंक दें, आपका अज्ञान आवृत हो जाए, छिप जाए, और आपको ऐसा प्रतीत होने लगे कि मैंने कुछ जाना है।