Hindi, asked by nidhs2010, 11 months ago

An essay in Hindi on the topics
1.) Aalas Buri Bala Hai
2.) Bharat Ke Gaon
3.) Man Ki chanchalta
4.) Safai Abhiyan ka uddeshy
5.) Online library
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Answers

Answered by sunilnagda4646
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Answer:

शरीरिक, मानसिक, तन-मन की उत्साहहीनता, कर्म न करने की प्रवत्ति, काम को टालने की आदत (दीर्घसूत्रता) को आलस्य कहते हैं। आलसी व्यक्ति परिश्रम से जी चुराता है, आराम से पड़े रहना चाहते है, अपना और दूसरों का अहित चाहने तथा करनेवाला शत्रु होता है।

आलस्य सबसे बड़ा शत्रु क्यों है? मनुष्य दुर्बलताओं का पुतला है – क्रोध, ईर्ष्या-द्वेष, कामवासना, लोभ, मोह आदि अनेक शत्रु हैं, परन्तु ये शत्रु अहित तो करते हैं परन्तु सर्वस्व हरण नहीं करते। आलस्य परम् शत्रु इसलिए है कि वह सारे, सब प्रकार के कष्टों का जनक है। आलस्य हमें दरिद्र बनता है क्योंकि आलसी व्यक्ति परिश्रम नहीं करता तथा निरुद्यमी व्यक्ति कितना ही लक्ष्मीपति हो, उसका धन-भंडार शनैः शनैः खाली होता जाता है। आलस्य उन्नति तथा प्रगति का बाधक है क्योंकि प्रगति होती है योजनाबद्ध कार्य करने से और आलसी व्यक्ति मानसिक शिथिलता के कारण योजना नहीं बना पाता और शारीरिक शिथिलता के कारण योजना को पूरा नहीं कर पाता। विद्यार्थी आलस के कारण नियमित रूप सर अध्ययन नहीं करता और कक्षा में फिसड्डी रह जाता है, वार्धिक परीक्षा में उत्तीर्णः नहीं हो पता। सरकारी कार्यालय में काम करने वाला कर्मचारी ठीक से काम न करने के कारण पदोन्नति नहीं पाता जबकि उसका उद्यमी, परिश्रमी साथी उसका बॉस बन कर उस पर रौब झाड़ने लगता है। व्यापारी आलस्य के कारण समय पर खरीदार को अपना माल नहीं पहुँचाता, इससे उसका काम ठप्प हो जाता है। आलसी व्यक्ति खटिया पर पड़ा आराम करता है या गहरी नींद में सोया रहता है तथा कुम्भकर्ण की संज्ञा पाता है। स्वस्थ रहने के लिए शुद्ध वायु, व्यायाम, आवश्यक हैं परन्तु आलसी व्यक्ति ब्रह्ममुहूर्त में उठना तो दूर रहा, सूर्योदय के बाद भी सोता रहता है; न व्यायाम करता है न प्रातःकालीन भ्रमण कर शुद्ध वायु का सेवन ही कर पाता है। नियमित भोजन न करने से उसकी पाचन-शक्ति भी दुर्बल पड़ जाती है और रोग उसे दबा लेते हैं। रोग, पातक और पाप दुर्बल व्यक्ति को ही दबाते हैं।

आलस्य हमारी इच्छाशक्ति को, संकल्प-शक्ति को शिथिल बनाता है। सोने से पूर्व हम संकल्प करते हैं कि प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में उठ जायेंगे, घड़ी में अलार्म भी लगा देते हैं पर आलर्म की घंटी बजकर शान्त हो जाती है और हम करवट लेकर, कुनमुना कर पुनः सो जाते हैं। संकल्प धरा का धरा जाता है। आलसी व्यक्ति में न आत्मबल होता है, न आत्मविश्वास। वह भग्यवादी बन जाता है। अपने दोषों, अपनी त्रुटियों को उत्तरदायी न मानकर अपने कष्टों के लिए भाग्य, प्रारब्ध, नियति, विधि, माथे या हाथ की रेखाओं को दोष देता है और मलूकदस की काव्य पंक्तियाँ दोहरा कर अपनी बात का समर्थन करता है:

अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम

दास मलूक कह गये, सबके दाता राम।

भलेमानस से पूछो, क्या अजगर कीड़े-मकोड़े खाने के लिए अपने बिल से, झाड़ी से नहीं निकलता? क्या पक्षी प्रातःकाल से संध्या तक भोजन की तलाश में खेतों, जंगलों में विचरण नहीं करते। सिंह जैसे पराक्रमी और शक्तिशाली वनराज को भी शिकार करना पड़ता है:

‘न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः’

अर्थात् सिंह जैसे पुरुषार्थी जंगल के राजा के मुख में भी पशु स्वयं भक्ष्य बन कर प्रवेश नहीं करते; उसे भी मृगों के पीछे भागना-दौड़ना पड़ता है। ऋग्वेद कहता है: ‘देवता भी आलसी से प्रेम नहीं करते‘ (न सुप्ताय स्पृहयन्ति देवाः)

आलसी की सर्वत्र दुर्गति होती है। वह न नहाता है, न कपड़े बदलता है, अतः उसके शरीर से दुर्गन्ध आती है, कोई उसके निकट नहीं जाता, बात करना तो दूर रहा; कुत्ते तक उसके मुँह चाटते हैं। अतः आलसी व्यक्ति न स्वस्थ रहता है, न सुखी, न सम्पन्न। निराशा, उदासी, अकर्मण्यता से घिरा वह सबकी घृणा, उपहास, तिरस्कार का पात्र बनता है। आलस्य ही मनुष्य को परावलम्बी, परमुखापेक्षी बनाता है। आलस्य के कारण नियमित रूप से कक्षा में न जानेवाला विद्यार्थी अद्यापक की बतायी बातें न सुनता है, न लिखता है, संदर्भ ग्रंथों से नोट्स नहीं बनता और जब परीक्षा सिर पर आती है तो अपने सहपाठियों की खुशामद, चापलूसी करता है, दिन होकर खिसियाता है और उनके द्वारा दुत्कारे जाने पर खीझता है, झुंझलाता है, निराश एवं उदास होकर बैठ जाता है तथा अंग्रेजी विद्वान कार्लाइल की इस उक्ति को चरितार्थ करता है: “एक मात्र आलस्य में ही निराशा निरन्तर निवास करती है।” तमिल संत तिरूवल्लवुर का कथन है: “आलस्य में दरिद्रता का वास है” तो जैरमी टेलर का विचार है कि आलस्य जीतेजी मृत्यु है: ‘Idleness is the burial of a living man’ अद्यापक पूर्ण सिंह ने भी अपने निबन्ध ‘आचरण की सभ्यता’ में आलस्य को मृत्यु कहा है।

आलसी व्यक्ति को न खाने-पीने की चिन्ता होती है और न ईश्वर के दर्शन की। वह न पेट भरने के लिए उठता है और न ईश्वर-प्राप्ति के लिए सिजदा करने को ही तैयार होता है:

मर जाना पैं उठके कहीं जाना नहीं अच्छा

सिजदे से गर बहिश्त मिले दूर कीजिए।

फाके से मरिए पर न कोई काम कीजिए।

जो आलसी नहीं है, कर्मठ है, पुरुषार्थी है सफलता, यश, कीर्ति उसके चरणों की दासी है। अर्जुन को गुडाकेश अर्थात् नींद जितनेवाला कहा गया है, वह अपनी वीरता के लिए विख्यात है। राम-वनवास के अवसर पर लक्ष्मण रत-भर राम-सीता की पर्णकुटी के द्वार पर वीरासन लगाये जागते रहते थे। वह महायती कहलाते हैं, भ्रातृ के आदर्श माने जाते हैं। गीता में ‘कर्मयोग’ पर बल दिया गया है, अकर्म को पाप कहा गया है।

‘मा कर्मफल हेतुर्भु, मा ते संगोस्तिकर्मणि’

प्रेमचंद्र आलस्य को रोजगार बताते हैं, चेस्टफील्ड आलस्य को मूर्खों का आश्रय-स्थल कहते हैं: ‘Idleness is only the refuge of the weak minds’ कबीर और गोस्वामी तुलसीदास की पत्नी रत्नावली काम टालने की आदत की निन्दा करते हैं। रत्नावली कहती है:

Answered by priyanshurohila5279
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Answer:

1)Aalas Buri Bala Hai

ऐसी मानसिक या शारीरिक शिथिलता जिसके कारण किसी काम को करने में मन नहीं लगता आलस्य है । कार्य करने में अनुत्साह आलस्य है । सुस्ती और काहिली इसके पर्याय हैं । संतोष की यह जननी है, जो मानवीय प्रगति में बाधक है । वस्तुत: यह ऐसा राजरोग है, जिसका रोगी कभी नहीं संभलता । असफलता, पराजय और विनाश आलस्य के अवश्यम्भावी परिणाम हैं ।

आलसियों का सबसे बड़ा सहारा ‘भाग्य’ होता है । उन लोगों का तर्क होता है कि ‘होगा वही जो रामरुचि रखा ।’ प्रत्येक कार्य को भाग्य के भरोसे छोड़कर आलसी व्यक्ति परिश्रम से दूर भागता है । इस पलायनवादी प्रवृत्ति के कारण आलसियों को जीवन में सफलता नहीं मिल पाती । वस्तुत: आलस्य और सफलता में 36 का आंकड़ा है ।

भाग्य और परिश्रम के सम्बन्ध में विचार व्यक्त करते हुए सभी विचारकों ने परिश्रम के महत्व को स्वीकार किया है और भाग्य का आश्रय लेने वालों को मूर्ख और कायर बताया है । बिना परिश्रम के तो शेर को भी आहार नहीं मिल सकता । यदि वह आलस्य में पड़ा रहे, तो भूखा ही मरेगा ।

आलस्य की भर्त्सना सभी विद्वानों, संतों, महात्माओं और महापुरुषों ने की है । स्वामी रामतीर्थ ने आलस्य को मृत्यु मानते हुए कहा, ‘आलस्य आपके लिए मृत्यु है और केवल उद्योग ही आपका जीवन है । संत तिरूवल्लुवर कहते हैं, ‘उच्च कुल रूपी दीपक, आलस्य रूपी मैल लगने पर प्रकाश में घुटकर बुझ जाएगा ।’

संत विनोबा का विचार है, ‘दुनिया में आलस्य बढ़ाने सरीखा दूसरा भयंकर पाप नहीं है ।’ विदेशी विद्वान जैरेमी टेरल स्वामी रामतीर्थ से सहमति प्रकट करते हुए कहता है, ‘आलस्य जीवित मनुष्य को दफना देता

है ।’ आलस्य के दुष्परिणाम केवल विद्यार्थी जीवन में भोगने पड़ते हों, ऐसी बात नहीं । जीवन के सभी क्षेत्रों में उसके कड़वे घूंट पीने पड़ते हैं ।

शरीर को थोड़ा कष्ट है, आलस्यवश उपचार नहीं करवाते । रोग धीरे-धीरे बढ़ता जाता है । जब आप डॉक्टर तक पहुँचते हैं, तब तक शरीर पूर्ण रूप से रोगग्रस्त हो चुका होता है, रोग भयंकर रूप धारण कर चुका होता है ।

खाने की थाली आपके सामने है । खाने में आप अलसा रहे हैं, खाना अस्वाद बन जाएगा । घर में कुर्सी पर बैठे-बैठे छोटी-छोटी चीज के लिए बच्चों को तँग कर रहे हैं, न मिलने या विलम्ब से मिलने पर उन्हें डांट रहे हैं, पीट रहे हैं, घर का वातावरण अशांत हो उठता है-केवल आपके थोड़े से आलस्य के कारण ।

‘आलस्य में दरिद्रता का वास है । आलस्य परमात्मा के दिए हुए हाथ-पैरों का अपमान है । आलस्य परतन्त्रता का जनक है । इसीलिए देवता भी आलसी से प्रेम नहीं करते ।’ (ऋग्वेद) आलसी मनुष्य सदा ऋणी और दूसरों के लिए भार रूप रहता है, जबकि परिश्रमी मनुष्य ऋण को चुकाता है तथा लक्ष्मी का उसके यहाँ वास होता है । आलस्य निराशा का मूल है और उद्योग सफलता का रहस्य ।

उद्यम स्वर्ग है और आलस्य नरक । आलस्य सब कामों को कठिन और परिश्रम सरल कर देता है । पाश्चात्य विद्वान रस्किन ने चेतावनी देते हुए लिखा है, ‘आलसियों की तरह जीने से समय और जीवन पवित्र नहीं किये जा सकते ।’

अत: आलस्य को अपना परम शत्रु समझो और कर्तव्यपरायण बन परिस्थिति का सदुपयोग करते हुए उसे अपने अनुकूल बनाओ । कारण, कार्य मनोरथ से नहीं, उद्यम से सिद्ध होते हैं । जीवन के विकास-बीज आलस्य से नहीं, उद्यम से विकसित होते हैं ।

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