अनुच्छेद लेखन..... ...............
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अपने जीवन काल में मनुष्य को अनेक यात्राओं का अनुभव होता है । कुछ यात्राएँ लोग सुख व मनोरंजन के लिए करते हैं तो कुछ आवश्यकतापरक होती हैं ।
मेरी प्रथम पर्वतीय यात्रा मनोरंजन व आवश्यकता का मिश्रित रूप थी जब मुझे मेरे एक मित्र द्वारा निमंत्रित दावत में सम्मिलित होना पड़ा था । बात पिछले वर्ष सितंबर महीने की थी । मेरे परम मित्र को एक पर्वतीय प्रदेश चंपावत के जेल विभाग में प्रथम नियुक्ति प्राप्त हुई थी ।
इस खुशी के अवसर पर उसने एक समारोह का आयोजन किया तथा उस समारोह में सम्मिलित होने के लिए मुझे निमंत्रण-पत्र भेजा । इससे पूर्व मुझे कभी पर्वतीय यात्रा का अवसर प्राप्त नहीं हुआ था । अत: यह सोचकर कि घूमना और दावत में शामिल होना दोनों कार्य एक साथ हो जाएँगे, मैंने पिताजी से अनुमति माँगी । पिताजी ने कुछ हिदायतों के साथ मुझे सहर्ष स्वीकृति दे दी ।
रात्रि 11.30 बजे पर मैंने गंतव्य स्थान चंपावत के लिए बस पकड़ी । सितंबर माह में दिल्ली का मौसम प्राय: सुहावना ही रहता है । बस में बैठने के पश्चात् मैंने बस यात्रा का टिकट संवाहक से प्राप्त किया और पत्रिका के पन्ने उलटने लगा । इस बीच कब मुझे नींद आ गई इस बात का पता ही नहीं चला ।
जब प्रात: मेरी निद्रा टूटी उस समय हम टनकपुर पहुँच चुके थे । अभी तक मैंने केवल मैदानी यात्रा पूर्ण की थी । अब यहाँ से बस चढ़ाई पर जाएगी । मुझे अभी से ही थकान प्रतीत हो रही थी, अत: मैंने बस स्टेशन पर ही चाय ली । यहाँ पर दिल्ली की अपेक्षा मौसम में अधिक ठंड थी ।
मैंने सहयात्रियों से पता किया तब मालूम चला कि मेरा गंतव्य स्थान चंपावत टनकपुर से 75 किलोमीटर की दूरी पर है तथा उसकी ऊँचाई समुद्रतल से 5000 फीट है । हमारी बस का चालक बदल चुका था क्योंकि पर्वतीय मार्ग पर बस अनुभवी चालक ही चला सकते हैं ।
प्रात: ठीक 4.20 बजे पर हमारी बस चढ़ाई की ओर चल पड़ी । यह पूरी तरह स्पष्ट दिखाई दे रहा था कि जंगलों को काटकर यहाँ मार्ग बनाए गए हैं । अभी हम चार-पाँच किलोमीटर ही चले होंगे कि बरफीली हवाओं से मुझे कँपकँपी महसूस होने लगी । मैं पिता जी को मन ही मन धन्यवाद देने लगा कि उन्होंने मुझे गरम कपड़े रखने की सख्त हिदायत दी थी ।
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मैंने बैग से अपनी गरम जैकेट निकालकर पहन ली, इससे थोड़ी गरंमाहट का अनुभव हुआ । मैंने उन ठंडी हवाओं में विशेष ताजगी का अनुभव किया । हमारी बस घुमावदार रास्तों से ऊपर की ओर बढ़ती चली जा रही थी । मैंने अनुभव किया कि वास्तव में इन दुर्गम व जोखिम भरे रास्तों पर एक कुशल व अनुभवी चालक ही बस को खींच सकता है । यहाँ पर जरा भी असावधानी सीधे मौत की ओर धकेल सकती है ।
थकान व कठिनाइयों के बावजूद मुझे मेरी यह प्रथम पर्वतीय यात्रा सुखद लग रही थी । शहर की भीड़-भाड़ व कृत्रिमता से दूर प्रकृति का वास्तविक आनंद मुझे पुलकित कर रहा था । प्रकृति के इतने करीब होने का सुखद एहसास मुझे प्रथम बार हुआ था । दूर-दूर तक हरियाली ही हरियाली नजर आ रही थी ।
बस से नीचे की ओर फैली घाटियों को देख मन सिहर उठता था । चारों ओर गहरी घाटियाँ, उस पर अपने मवेशियों को चराते हुए पर्वतीय लोग तथा उन घाटियों के मध्य पानी का कल-कल करता स्वर आदि का मनोहारी दृश्य मेरे दिलो-दिमाग पर पूरी तरह अपना प्रभाव छोड़ रहा था । मैंने बैग से अपना कैमरा निकाल कर अनेक रमणीय चित्र कैद कर लिए ।
मैं पर्वतीय सुंदरता में डूबता ही जा रहा था कि मैंने देखा, बादल बस की खिड़की से प्रवेश कर रहे हैं । यह मेरे लिए सबसे अद्भुत व अविस्मरणीय था । मैंने अपने हाथ से बादलों को छुआ । दूर सूर्य की किरणें ओस की बूँदों पर पड़ती हुई इस तरह प्रतीत हो रही थीं, जैसे पूरी घास पर प्रकृति ने मोती बिखेर दिए हों ।
रास्ते में हम ‘चलथी’ नामक स्थान पर रुके । वहाँ पर मैंने चाय पी तथा उबले चने दही के साथ लिए । इसके बाद कैमरे से मैंने अनेकों तस्वीरें लीं । बस पुन: चल पड़ी । घुमावदार रास्तों पर होते हुए इधर-उधर लुढ़कते हम प्रात: 10.30 बजे पर चंपावत पहुँचे ।
मेरे मित्र वहाँ पहुँचे हुए थे । वे सभी अत्यधिक प्रसन्न हुए । संपूर्ण बदन थकान से टूट रहा था । हवा में भी काफी नमी थी । मैंने थोड़ा आराम करने के पश्चात् चाय-नाश्ता लिया । मित्र ने अपने विभाग के सभी सदस्यों से मेरा परिचय कराया ।
मुझे उनसे मिलकर अत्यंत प्रसन्नता हुई तथा सभी को मैंने दिल्ली आने का निमंत्रण दिया । मेरी प्रथम पर्वतीय यात्रा अविस्मरणीय है । मैंने निश्चय किया है कि आगामी गरमी की छुट्टियों में हम सब परिवार के साथ पर्वतीय यात्रा का आनंद उठाएँगे ।